Book Title: Karanvad
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 5
________________ जितेन्द्र शाह Nirgrantha और यदि अमूर्त मान लिया जाए तब तो वह किसी का कर्ता नहीं बन सकता। यथा आकाश । आकाश अमूर्त है अतः वह किसी का कारण नहीं बन सकता । ३. अमूर्त स्वभाव को शरीरादि मूर्त पदार्थों का कारण नहीं मान सकते क्योंकि मूर्त पदार्थ का कारण मूर्त ही होना चाहिए । अमूर्त से मूर्त की उत्पत्ति संभवित नहीं हो सकती। ४. स्वभाव को अकारण रूप मान लिया जाय तब भी आपत्ति आएगी क्योंकि, शरीरादि बाह्य पदार्थों का कोई कारण नहीं रह जाएगा और शरीरादि सब पदार्थ सर्वत्र सर्वथा एक साथ उत्पन्न होंगे । जब सभी पदार्थों को कारणाभाव समान रूप में है तब सभी पदार्थ सर्वदा सर्वत्र उत्पन्न होंगे३८ । ५. शरीरादि को अहेतुक मान लिया जाए तब भी युक्ति विरोध आएगा क्योंकि, जो अहेतुक अर्थात् आकस्मिक होता है । वह अभ्रविकार की तरह सादि नियताकार वाला नहीं होता है । इस प्रकार जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यकभाष्य (प्रायः ईस्वी ५८५) में स्वभाववाद का निराकरण मिलता है । स्वभाववाद का खंडन भी स्वभाव को एकमात्र कारण मानने से उत्पन्न दोषों के आधार पर किया गया है। द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना करते हुए कहा गया है कि स्वभाव ही सबका कारण है । पुरुषादि का स्वत्व स्वभाव से ही सिद्ध है और यदि इसको स्वभाव सिद्ध न माना जाए तब स्व को सिद्ध करने के लिए पर का आश्रय लेना पडेगा तब स्व स्व ही न रह पाएगा । यथा घट पट का अनात्म स्वरुप होने से पट नहीं होता उसी तरह पट घट का अनात्म होने के कारण पटात्मक नहीं होता है । अतः स्वभाव को ही एकमात्र कारण मानना चाहिए । घट और उसके रूप का युगपद उत्पन्न होना तथा धान या अंकुरादि का क्रमशः उत्पन्न होना आदि परिणमन स्वभाव से ही होते हैं। यह भी प्रत्यक्ष देखा जाता है कि समान भूमि और पानी आदि सहकारी कारण होने पर भी भिन्न-भिन्न बीज से भिन्न-भिन्न वृक्षादि उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार कण्टकादि में जो तीक्ष्णता है वह फूल में नहीं होती है। मयूर पक्षी आदि में जो विचित्रता, विभिन्नता पाई जाती है वह भी स्वभावत: ही होती है । कंटक को तीक्ष्ण कौन करता है ? मृग और पक्षियों को कौन रंगता है ? यह सब स्वभावत: ही होती है । मृग के बच्चे की आँखों में अंजन कौन करता है ? मयूर के बच्चे को कौन रंगता है ? और कुलवान पुरुष में विनय कौन लाता है ? अर्थात् यह सब स्वभाव से ही होता है । इस प्रकार नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना की गयी है। नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना के अवसर पर विरोधियों के आक्षेपों को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि यदि स्वभाव ही कारण है तब क्यों न ऐसा मान लिया जाए की स्वभाव से ही कण्टक की उत्पत्ति होती है । उसमें भूमि आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। कण्टक कण्टक के रूप में ही क्यों उत्पन होता है ? अन्यथा क्यों नहीं उत्पन्न होता ? कण्टक ही क्यों तीक्ष्ण होता है ? कुसुम ही क्यों सुकुमार होता है ? उक्त प्रश्नों के उत्तर में कहा गया है कि वस्तु का स्वभाव विशेष ही ऐसा है कि वह उसी प्रकार उत्पन्न होता है। भूमि आदि का स्वभाव है कण्टादिको उत्पन्न करने का जैसे मनुष्य का स्वभाव है कि वह क्रमशः वृद्धि पाता है। वय क्रमशः ही बढ़ती है और दूध में से घी का भी क्रमशः ही बनना वस्तु का स्वभाव है। ऐसा न मानने पर विश्व की व्यवस्था ही नहीं टिक पाएगी । घट बनाना माटी का स्वभाव है अत: उससे घट बनता है किन्तु आकाश से घट नहीं बनता | दूसरा आक्षेप यह किया गया है कि घट आदि की उत्पत्ति क्रिया से होती हुई दिखाई देती है तब Jain Education international Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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