Book Title: Karanvad
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 8
________________ Vol. II - 1996 कारणवाद नियति का स्वरूप : नयचक्र में नियति के स्वरूप का चिंतन करते हुए कहा गया है कि नियति जगत् कारण होते हुए भी वह सत्ता से अभिन्न ही है। कोई एक पुरुष में बाल्यादि अवस्थाभेद के विकल्प उत्पन्न होते हैं किन्तु परमार्थ से तो वह पुरुष एक ही है। ऐसे ही नियति भी परमार्थतः एक ही है । तथा जैसे स्थाणु या पुरुष में यह वही स्थाणु या वह वही पुरुष ऐसी प्रतीति का कारण ऊर्ध्वता सामान्य है वैसे ही क्रिया और फल के भेद से नियति में भेद किया जाता है तथापि वह परमार्थत: तो अभेद स्वरूप ही है । यह नियति भिन्न द्रव्य, देश, काल और भाव के भेद से तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, आसन्न और अनासन्न भी है । नियति काल, स्वभाव आदि नहीं है। काल से ही ऐसी विचित्रता सम्भवित है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि कभी-कभी वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, बसन्त, और ग्रीष्म आदि ऋतु में समयानुसार प्रवर्तित नहीं भी होती है । कभी-कभी अकाल में भी वर्षादि देखी जाती है अत: काल इस विचित्रता का कारण नहीं हो सकता । स्वभाव भी जागतिक वैचित्र्य का कारण नहीं हो सकता क्योंकि बालक रूप में होना, युवा रूप में होना ये सभी पुरुष का स्वभाव होने पर भी बाल्यवस्था में युवावस्था प्राप्त नहीं होती। अतः युगपत् सभी अवस्थाओं के अभाव के आधार में अन्य किसी भी तत्त्व को कारण मानना ही पड़ेगा, वही कारण तत्त्व नियति है । इस प्रकार द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद की स्थापना की गई है। नियतिवाद भारतीय दर्शन में खासकर बौद्धदर्शन एवं जैनदर्शन के ग्रंथों में वर्णित है। उक्त दर्शनों के ग्रथों में नियतिवाद का वर्णन पूर्वपक्ष के रूप में प्राप्त होता है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन काल में नियतिवाद एक प्रभावपूर्ण सिद्धान्त रहा होगा । क्रमशः नियतिवाद का हास होता गया । अतः पश्चात्कालीन ग्रंथों में नियतिवाद का वर्णन या खंडन भी कम होता गया । द्वादशास्नयचक्र में नियतिवाद का सिद्धान्त अनेक तार्किक दलीलों के आधार पर स्थापित किया गया है एवं तत्पश्चात् अकाट्य तर्कों के द्वारा उसका खंडन भी किया गया है। पुरुषवाद : द्वादशारनयचक्र के द्वितीय अर में विभिन्न कारणवादों की स्थापना एवं आलोचना की गई है। जगत में दृश्यमान विविधता का कारण क्या हो सकता है ? ऐसी जिज्ञासा भारतीय तत्त्वचिंतकों के मन में प्राचीन काल में ही उद्भूत हो चुकी थी । प्रस्तुत शंका का समाधान पाने के लिए विभिन्न दार्शनिकों ने अपनेअपने ढंग से प्रयास किया । परिणाम यह हुआ कि जगत् वैचित्र्य की व्याख्या के किसी सर्वमान्य सिद्धान्त के स्थान पर विभिन्न सिद्धान्त अस्तित्व में आए । इन सिद्धांतों के विषय में खंडन-मंडन की परंपरा भी शुरू हुई । इन सिद्धान्तों में एक पुरुषवाद भी है । पुरुषवाद का कथन है कि विश्व की विचित्रता का एक मात्र कारण पुरुष आत्मा-ब्रह्म ही है६२ । पुरुषवाद का मूल हमें ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त" में मिलता है । ऋग्वेद के दशम मंडल के इस "पुरुष सूक्त" में कहा गया है कि अकेला पुरुष ही इस समस्त विश्व का जो कुछ भी हुआ है तथा जो आगे भविष्य में होने वाला है उसका आधार है । द्वादशारनयचक्र में इसी मंत्र को उद्धत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । ऋग्वेद में प्रस्तुत सूक्त में कहा गया है कि विराट नाम का पुरुष इस ब्रह्मांड के अन्दर और बाहर व्याप्त है । यह जो दृश्यमान जगत् है वह सब कुछ पुरुष ही है । जो अतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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