Book Title: Kanhadde Prabandh Sanskrutik Drushti Se
Author(s): Bhogilal J Sandesara
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 1
________________ कान्हड़देप्रबन्ध-सांस्कृतिक दृष्टि से मूल गुजराती लेखक : श्रीभोगीलाल ज० सांडेसरा अनुवादक : जयशंकर देवशंकरजी शर्मा (श्रीमाली) बीकानेर गुजरात विश्वविद्यालयकी विद्याविस्तार भाषणमालामें इस भाषणको देने हेतु निमंत्रण देनेके लिये सेठ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरके नियामक श्री दलसुखभाई मालवणियाका मैं अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। आजके भाषणके लिये कान्हड़देप्रबन्धका विषय उन्हींकी अनुमतिसे निश्चित हुआ है। श्री डाह्याभाई देरासरी द्वारा सम्पादित इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्ति प्रायः मुझे देखने का अवसर सन् १९३०में मिला और उस समय मैंने इसे समझे-बिना समझे ही पढ़ लिया। यह मेरा प्राचीन गुजराती अवलोकनका प्रथमावसर था। तत्पश्चात इस रचनाको मैंने अपने कालेज अध्ययनके अवसरपर भी पढ़ा है और इसके अध्यापनका भी अवसर आया है। साहित्य, भाषा और संस्कृति-इतिहास इस प्रकारसे विविध दृष्टिसे विचार करते समय इसका आकर्षण बढ़ता ही रहा है तथा इसका महत्त्व समझ में आता गया है। इस भाषण के निमित्त 'कान्हड़देप्रबन्ध' से सम्बन्धित अपने विचारोंको लेखबद्ध करनेका मेरा मन हुआ। 'कान्हड़देप्रबन्ध' सं० १५१२ (ई० स०१४५६) में पश्चिमी राजस्थान में " भूतपूर्व जोधपुर राज्यके, गुजरातसे सटे हुए दक्षिण विस्तारमें....."आया हआ जालौर नामक स्थानमें निर्मित काव्य है। (यह भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरकी स्थापना जिसके नामसे हुई है उन सेठ लालभाई दलपतभाईके पूर्वज लगभग साँच सौ वर्ष पूर्व अपने मूल पित स्थल ओसियासे निकलकर जालौरके आसपासके पुरोहित ब्राह्मणोंमें ठोस प्रचलित अनुश्रुतिके अनुसार जालौरसे केवल छह माइलकी दूरीपर स्थित सांकरणा नामक गाँवमें कछ पीढ़ियों तक निवास करने के बाद गजरातमें आये थे। यह योगानयोग, मझे यहाँ स्मरण हो जाता है। जालोर नगरके ध्वंस हो जानेपर वहाँके जालौरा (झालौरा-झारोला) ब्राह्मण एवं वणिक् दक्षिणकी ओर आकर राधनपुरके पास जालौर-जाल्यौधो (वर्तमानका देवगाम)में कुछ समय तक रहकर गुजरातमें अन्यत्र फैल गये । इनकी कुलदेवी हिमजामाता और ज्ञातिपुराण 'बालखिल्यपुराण' है। 'कान्हड़देप्रबन्ध'की भाषा प्राचीन गजराती किंवा प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी या मारू-गुर्जर है । इसके रचयिता वीसलनगरका नागर कवि पदमनाभ है। प्राचीन गुजराती साहित्यकी सबसे विशिष्ट एवं विख्यात रचनाओं में से यह एक कान्हड़देप्रबन्ध है। यह एक वीर एवं करुणरससे परिपूर्ण सुदीर्घ कथाकाव्य है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा गुजरातके अन्तिम हिन्दू शासक कर्णदेव वाघेलाके शासन-कालमें किया गया गुजरातपर आक्रमण और सोमनाथ भंगके अवसरपर दिल्लीसे गुजरातके मार्गपर स्थित जालोर राज्यमेंसे निकलने ( जाने देने के लिये वहाँके राजा सोनगिरा चौहान कान्हड़देवके पाससे मांगी गई अनुज्ञा, किन्तु इस मांगका कान्हड़देव द्वारा अस्वीकार और सुल्तानके योद्धाओंका १. गुजरात विश्वविद्यालयको विद्याविस्तार भाषणमालामें सेठ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद में ता० २९ जनवरी, १९७० को दिया गया भाषण । भाषा और साहित्य : २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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