Book Title: Kanhadde Prabandh Sanskrutik Drushti Se
Author(s): Bhogilal J Sandesara
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
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________________ पश्चात इसमेंके वर्णन किंवा निर्देशनोंके यथाशक्य संयोजनका प्रयत्न मैंने एक लेखमें ('जालौर और श्रीमालकी विद्यायात्रा,' 'बुद्धि प्रकाश' अप्रैल 1967) किया है अतः यहाँ विस्तार नहीं करूंगा। इस प्रकारसे भाषा एवं साहित्य दोनों दृष्टिकोणसे मारु-गुर्जर साहित्यमें 'कान्हड़देप्रबन्ध' अत्यन्त महत्त्वका है। मध्यकालीन भारतीय इतिहासके लिये निर्मित साधन-ग्रन्थों में इसका अति विशिष्ट स्थान है / मुस्लिम राज्यकालके अमुस्लिम मूल साधनोंकी-कतिपय विद्वानोंके शब्दोंमें कहा जाय तो-नोन-पसियन सोसिजकी-शोध और अध्ययनका प्रयत्न बिशेष रूपसे हो रहा है तब तो 'कान्हड़देप्रबन्ध' के प्रति सविशेष ध्यानाकर्षण करना होगा, ऐसा है / चौहान वंशके विशिष्ट पुरुषोंपर रचे गये संस्कृत महाकाव्य, जयनक कृत 'पृथ्वी राजविजय', और नयचन्द्रसूरिकृत 'हम्मीरमहाकाव्य के समकक्ष ही 'कान्हड़देप्रबन्ध'का स्थान है। ('पृथ्वीराज रासो', एक प्रकारसे अपभ्रंश महाभारत होनेपर भी इसका विवेचन एक पृथक् विचार करने योग्य है / ) प्रशस्ति अत्युक्तियोंके होने पर भी सामान्यतः ये कवि स्थितिकी वास्तविकताका निरूपण करनेसे नहीं चूके हैं। इतना होते हुए भी उपयुक्त संस्कृत महाकाब्योंके समान साहित्यशास्त्रके दृढ़ बंधनोंसे अलिप्त ऐसी पद्मनाभको काव्य रचनाके पठन और परिशीलनसे एक प्रकारकी मुक्तताका अनुभव होता है। ___ मैं, इस परिशीलनका अवसर देने हेतु इस संशोधन संस्थाके नियामक महोदयका पुनः उपकार मानता हूँ। (बुद्धिप्रकाश फरवरी सन् १९७०के पृ० 59 से 69 तकसे) भाषा और साहित्य : 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org