Book Title: Kalpsutra me Bhadrabahu Prayukta Yag Shabda Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ 109 जैनधर्मका पाश्र्वापत्य श्रमणोपासक था । वह कभी भी हिंसात्मक यागोंका समर्थन कर नहीं सकता। क्योंकि ऐसे समर्थनमें तो अहिंसाका मूल जैन सिद्धांत ही खतम हो जाता। और अपने यहां पुत्र जन्मकी खुशाली जैसे मांगलिक अवसर पर ऐसा जैन राजा हिंसा को उत्तेजन दे - यह बात ही नितान्त असंभवित है। और तीसरी बात : सभी विवरणकारोंने 'जाए' को द्वितीयान्त पद ही माना है। यावत् पंडित बेचरदास दोशीने भी अपने सूत्रानुवादमें२ यागोने - देवपूजाओने, दायोने - दानोने अने भागोने' ऐसा ही अर्थ स्वीकारा है। इस बातको भी हम कैसे नजरअंदाज करेंगे?। __ यद्यपि ज्ञाताधर्मकथांगमें प्रथम अध्ययन (मेघकुमार-ज्ञान) में भी यही पाठ-वर्णक देखने मिलता है, और वहां एक पाठांतर भी है - "जाएहि, भाएहि, दाएहि य" । .यहां तीनों पद तृतीयान्त है, जिसका मतलब है -- यागैः, भागः, दायैः । अर्थात् यागों द्वारा, भाग द्वारा, दाय (दान) द्वारा। किन्तु वहां भी जाए, भाए, दाए - ऐसा पाठ तो है ही। और द्वितीयान्त हो या तृतीयान्त, 'याग' पद होगा तो 'पूजा' परक ही, उसमें कोई तफावत नहीं पड़ता है। अन्ततः यह सिद्ध होता है कि कल्पसूत्रमें प्रयुक्त 'याग' शब्द 'देवपूजा' परक है, और आर्य भद्रबाहुस्वामीने अपनी विलक्षण प्रतिभाके उपयोग द्वारा, उनके समयमें हिंसात्मक कर्मकाण्डोंमें रूढ बन गये हुए इस 'याग' शब्दको, कल्पसूत्रमें प्रयुक्त करके एक अजीब-सा नया ही मोड दे दिया है, और इसके द्वारा 'हिंसात्मक याग' का गर्भित निषेध भी कर दिया है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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