Book Title: Kaisa ho Hamara Ahar Author(s): Rajkumar Jain Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 5
________________ ५९४ है, इससे अधिक अनाज का भार उदर की पाचन शक्ति पर नहीं डाला जाना चाहिए। यह एक तथ्य परक स्थिति है कि अनाज हो या शाक-फल आदि हों, उनके छिलकों में अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्व रहते हैं। अतः विभिन्न अनाज, दालों और फलों का उपयोग यदि छिलका सहित किया जाता है तो वह अधिक लाभदायक और स्वास्थ्यवर्धक होता है। गेहूँ, चना आदि को अंकुरित कर लिया जाए और प्रातः उन भीगे व फूले हुए चनों को खाया जाय तो उससे न केवल शरीर की आहार सम्बन्धी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति होती है, अपितु वह गुणकारी एवं पौष्टिक भी होता है। अन्न द्रव्य को भिगोकर उसे भीगे तौलिया में बांधकर हवा में लटका दिया जाय तो वह अन्न द्रव्य स्वयं की अंकुरित हो जाता है। उसे कुचलकर या ऐसे ही खाया जा सकता है थोड़ा सा उबाल लेने पर सुखादु खाने लायक एवं रुचिकर तो बन जाता है, उसकी पोषक शक्ति में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो जाती है। पेट खाली हो जाने पर और तेज भूख लगने पर यदि देर तक चना चबाकर खाया जाय तो साधारण आहार भी विशेष गुणकारी हो जाता है। यह तथ्य परक वस्तु स्थिति है कि गेहूँ आदि अनाज का पिसा हुआ आटा छानकर प्रयोग करने से उसके पुष्टिकारक और बलवर्धक तत्व चोकर में निकल जाते हैं और आटा सार हीन बन जाता है। अतः सदैव चोकर युक्त आटे का प्रयोग करना चाहिए। इसी प्रकार मूँग और उड़द की दालें छिलका सहित ही सेवन करना चाहिए। सेव जैसे फलों का छिलका उतार कर खाना बुद्धिमानी नहीं है। अपने आपको सुसंस्कृत समझने वाले भले ही इसे आज सभ्यता का तकाजा मानकर सेब का छिलका उतारकर खाएँ, किन्तु यह स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी और लाभदायक नहीं होता है। जलपान में दूध-छाछ जैसे द्रव प्रधान आहार लेना पर्याप्त एवं उपयोगी होता है, प्रातःकालीन नाश्ता में यथा सम्भव ठोस आहार का परिहार करना चाहिए। भोजन के सम्बन्ध में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है : १. सामान्यतः भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए, बिना भूख के जबरदस्ती भोजन करना शरीर की पाचन क्रिया और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। २. भरपेट या ठूस-ठूस कर भोजन करना शरीर की पाचन क्रिया और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अतः हँस-हँस कर भोजन नहीं करना चाहिए। ३. भोजन करते समय किसी चिन्ता से ग्रस्त या तनावपूर्ण स्थिति में नहीं होना चाहिए। ४. खाद्य पदार्थों को अच्छी तरह चबा-चबाकर खाना चाहिए। खाना खाने में जल्द बाजी नहीं करना चाहिए। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ ५. भोजन के दौरान बीच में थोड़ा-थोड़ा जल लेना चाहिए। भोजन के बाद बहुत अधिक जल नहीं पीना चाहिए। ६. सामान्यतः दिन में दो बार भोजन करना चाहिए और दोनों भोजनों के मध्य लगभग छह से आठ घंटे का अन्तराल (अन्तर) होना चाहिए। इससे भोजन के पचने में सुविधा रहती है और भोजन का परिपाक ठीक होता है। ७. दिन भर मुँह चलाते रहने की आदत ठीक नहीं है। बार-बार कुछ न कुछ खाते-पीते रहना पाचन सिद्धान्त के विरुद्ध और हानिकारक है। इससे पाचन शक्ति प्रभावित होती है और यह बिगड़ जाती है जिससे भोजन के परिपाक में बाधा आती है और आहार का परिपाक जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हो पाता है। अतः बार-बार खाने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए । ८. भोजन करने के बाद लगभग १०० कदम चलना चाहिए। ९. ग्रीष्म आदि ऋतु में भोजन के बाद यदि लेटने की आदत है तो बाई करवट से लेटना चाहिए। १०. भोजन में सामान्यतः चोकर युक्त युक्त आटा, जी, चावल, दालें, चना, घी, तक्र, सोयाबीन, ताजी हरी तरकारियों आदि का सेवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार नीबू, अदरक, आंवला आदि का प्रयोग भी करना चाहिए। ११. भोजन के अन्त में ऋतुओं के अनुसार उपलब्ध फल जैसे केला, अमरूद, अनार, संतरा, नाशपाती, सेब आदि का सेवन करना चाहिए। १२. सबसे अंत में तक्रपान करना अत्यन्त लाभदायक है। १३. प्रतिदिन दही सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि में दही का प्रयोग हानिकारक होता है अतः बिल्कुल नहीं करना चाहिए। १४. पानी का सेवन भी हमारे शरीर के लिए उपयोगी एवं आवश्यक आहार के रूप में माना जाता है। भोजन के दौरान थोड़ा पानी पीना उपयोगी होता है। भोजन करने के एक घंटे बाद से लेकर दूसरा भोजन लेने तक पाँच-छह ग्लास पानी पीते रहने से पेट और रक्त की सफाई होती रहती है। आहार सेवन क्रम में वास्तव में यदि रखा जाय तो मनुष्य की एक सीमा मर्यादा होती है जो उसकी प्रकृति या स्वभाव के अनुकूल रहती है। यदि इसका व्यतिक्रम नहीं किया जाय तो मनुष्य की उदर सम्बन्धी स्वाभाविक स्थिति सामान्य बनी रह सकती है और उसके उदरगत पाचन तन्त्र की कार्यक्षमता में कोई गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। उदरगत आंत्र, अमाशय, यकृत, प्लीहा आदि अवयवों से स्रवित होने वाले विभिन्न स्राव (पाचक रस) वनस्पतियों तथा वनस्पतिक द्रव्यों से बने आहार को सम्यक्तया पाचित कर उसे रस-रक्त मांस आदि धातुओं में परिवर्तित कर शरीर को पुष्ट करने का कार्य करते हैं। प्रत्येकPage Navigation
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