Book Title: Kaisa ho Hamara Ahar Author(s): Rajkumar Jain Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 3
________________ 8006263०00000000000029 ye RJAROORNOTES aveeDESDGTHDANDSOD.SODoDad 00000000000000000000000 3500.000000000 JA 0000 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । क्रिया-कलाप प्रभावित होते हैं, उनमें मन्दता आती है। क्योंकि पाचन { आहार सात्विक हो संस्थान द्वारा अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा का उपयोग किए जाने पर । दैनिक रूप से हम जो भी आहार लेते हैं PARबमस्तिष्क को मिलने वाली विद्युत ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। होता है-सात्विक, राजसिक और तामसिक। शुद्ध, लघु, सुपाच्य 000% परिणामतः उदरस्थ पाचन की क्रिया प्रधान और मस्तिष्क की क्रिया आहार सात्विक आहार होता है। जिस आहार के सेवन से सत्व गौण हो जाती है। इसका सीधा प्रभाव वह होता है कि मनुष्य (मन) बुद्धि और विचार शुद्ध, निर्मल और सरल होते हैं, वह कुछ अधिक आहार वाला और कम बुद्धि वाला होता है। शरीर में आहार सात्विक होता है। सात्विक आहार के सेवन से हृदय में निर्मित होने वाली उस ऊर्जा का सम्बन्ध शारीरिक श्रम से है। खाए सरलता और निर्मलता आती है, विचारों में पवित्रता आती है और हुए आहार का पाचन करने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता मानसिक भाव या परिणाम शुद्ध होते हैं। सात्विक आहार के होती है वह सामान्यतः सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान रहती है। शरीर अन्तर्गत सभी प्रकार का अनाज, दलहन, साग-सब्जियाँ, फलियाँ, का कोई भी अंग जब अतिरिक्त श्रम करता है तब उसके ऊर्जा का। फल, सूखे मेवे तथा उचित मात्रा में दूध, मक्खन, पनीर आदि प्रवाह अधिक हो जाता है। आहार के पाचन के लिए पाचन संस्थान आते हैं। ऐसा आहार मानसिक शान्ति और समरसता उत्पन्न करता को अतिरिक्त या अधिक श्रम करना पड़ता है तब उसे अतिरिक्त है, चित्त और मस्तिष्क में विकार उत्पन्न नहीं होने देता तथा ऊर्जा की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति अन्य संस्थान या मनोभावों को दूषित नहीं होने देता। अवयव से होती है। अतः किसी एक अवयव को अतिरिक्त ऊर्जा अधिक मात्रा में मिर्च-मसाले, अचार, चटनी, खट्टे तीखे, उष्ण, की पूर्ति होने पर जिस अवयव से पूर्ति होती है उस अवयव में तीक्ष्ण पदार्थों वाले भोजन का सेवन करना राजसिक आहार के ऊर्जा की कमी हो जाती है जिससे निश्चित रूप से उस अवयव की अन्तर्गत आता है। राजसिक आहार स्वभाव को उग्र बनाता है। क्रियाएँ प्रभावित होती है, परिणाम स्वरूप उस अवयव की क्रियाओं उत्तेजक होने से मन, मस्तिष्क और इन्द्रियों को उत्तेजित करता है। 02 में मन्दता आ जाती है। राजसिक आहार सेवन करने वालों का मन अशान्त और भोजन करने के तत्काल बाद कोई भी बौद्धिक कार्य नहीं करने असन्तुलित होता है, उन्हें क्रोध जल्दी आता है। मन और मस्तिष्क का निर्देश विद्वानों ने दिया है। इसका कारण सम्भवतः यही है कि में चंचलता होने से उनके विचार अस्थिर होते हैं, ऐसे व्यक्ति कोई पाचन संस्थान में जाने वाली ऊर्जा में अवरोध उत्पन्न नहीं हो और निर्णय नहीं कर पाते हैं। उस अवरोध या ऊर्जा की अल्पता के कारण पाचन में कोई विकृति बासा खाना, मांस, मछली, अण्डा, मुर्गे का चूजा, स्मैक, नहीं हो। सामान्यतः जब सादा और संतुलित भोजन लिया जाता है हेराइन, गांजा, भांग, धतूरा आदि विभिन्न नशीले द्रव्यों का सेवन तब शरीर के सभी अंग प्रत्यंगों को संतुलित ऊर्जा का प्रवाह सतत एवं मदिरा आदि नशीले पेयों का सेवन तामसिक आहार में बना रहता है, क्योंकि पाचन के लिए अपेक्षित ऊर्जा वहाँ स्वतः ही परिगणित होता है। तामसिक भोजन मन एवं बुद्धि को मन्द करता विद्यमान रहती है, उसे अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं है, विचारों को कुण्ठित करता है तथा शारीरिक कार्यक्षमता को पड़ती। किन्तु जब गुरु (भारी) और असन्तुलित भोजन (बार-बार मन्द करता है। सतत रूप से तामसिक आहार लेने वाले व्यक्ति खाना या अधिक मात्रा में खाना) लिया जाता है तब पाचन संस्थान हिंसक एवं क्रूर प्रकृति के होते हैं, उनकी विचार शक्ति कुण्ठित हो 00000 को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो वह अन्य अंगों जाती है, उनके हृदय में स्वाभाविक सहज भाव उत्पन्न नहीं हो पाते। अवयवों से खींचता है। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव मस्तिष्क पर वे सतत दुर्भावना से ग्रस्त रहते हैं और उनके विचारों की पवित्रता पड़ता है, क्योंकि आकृष्ट ऊर्जा वहीं से आती है। अतः यह नष्ट हो जाती है। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि जब पाचन संस्थान की ऊर्जा बढ़ेगी तो मस्तिष्क की ऊर्जा क्षीण होगी। ऐसी स्थिति में अधिक या असन्तुलित खाने उपर्युक्त तीन प्रकार के आहार में सात्विक आहार सर्वोत्तम होता वाले का मस्तिष्क या बुद्धि उतनी तीव्र या कुशाग्र नहीं होती है। है, राजसिक आहार मध्यम और तामसिक आहार अधम होता है। जितनी कम और संतुलित खाने वाले की होती है। अधिक खाने । निर्मल बुद्धि एवं सात्विक विचारवान् लोग सर्वथा सात्विक आहार वाले का पेट तो बड़ा होता है, किन्तु मस्तिष्क छोटा होता है। यही को ही ग्राह्य मानते हैं। वे अपने आचार-विचार एवं व्यवहार को कारण है कि न तो उनकी बुद्धि विकसित होती है और न ही । सरल एवं निर्मल बनाने के लिए सात्विक आहार ही ग्रहण करते हैं। प्रतिभा का विकास होता है। अतः यह आवश्यक है कि ऊर्जा का आध्यात्मिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए भी सात्विक 1990 अनावश्यक व्यय या अपव्यय न हो। पाचन के लिए कम से कम आहार ही अनुकूल होता है। व्यक्ति चाहे किसी धर्म या सम्प्रदाय से व्यय हो, ताकि चिन्तन-मनन आदि मस्तिष्कीय एवं मानसिक जुड़ा हो, ईश्वराराधन के लिए उसे सात्विक होना आवश्यक है और गतिविधियों में उसका उपयोग अधिकाधिक हो सके जो मनुष्य के सात्विक होने के लिए सात्विक आहार का ही ग्रहण करना आवश्यक } है। विभिन्न धर्मों का सन्देश भी हमें यही प्रेरणा देता है कि हम बौद्धिक व मानसिक स्तर तथा प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के विकास के P690 लिए आवश्यक है। सात्विक बनें और सात्विक आहार ही ग्रहण करें। DG6000 Pa:00:00 5066DXSDIOD KO90995 QUAPage Navigation
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