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टबार्थ, अनुवाद, भाषा, विवरण, प्रवचन, अन्वय, अर्थ, भावार्थ, कथा, हिस्सा, संक्षेप, चयन, संबद्ध, प्रक्रिया, अंतर्वाच्य, अनुक्रमणिका, बीजक व यंत्र.
ii. इस क्रम में समान स्वरूप की एक साथ आनेवाली टीका आदि कृतियों को पुनः उपरोक्त कृतिनाम, कर्त्तानाम व आदिवाक्य के अकारादि क्रम से दिया गया है.
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आशा है कि क्रम विन्यास 'आवश्यक सूत्र' 'कल्पसूत्र' आदि बड़े कृति परिवारों में एवं २४ जिन स्तुति' जैसी समान नामवाली अनेक कृतियों के समूह में से इच्छित कृति को ढूंढने में विशेष उपयोगी सिद्ध होगा.
५. कृति को उसके पर्यायवाची नामों से भी खोजें यथा नमस्कार हेतु नवकार, पंचपरमेष्ठि, नवपद हेतु सिद्धचक्र आदि.
चूंकि अनेक कृतियों के एकाधिक प्रचलितनाम भी मिलते हैं, इनमें से यहाँ पर सूचीपत्र का कद बढ़ने के भय से, मात्र एक मुख्य नाम ही दिया गया है. यथा बारसासूत्र आदि के लिए कल्पसूत्र ही दिया गया है.
इन नामों से अभिहित कर, बाद में
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६. सामान्य पद, सज्झाय, लघुकाव्यों आदि को 'औपदेशिक' एवं 'आध्यात्मिक
विषयानुसार नामाभिधान करने का प्रयत्न किया गया है.
७. कृतिनाम में यदि कोई संख्यावाचक शब्द है, तो एकरूपता लाने के लिए वह संख्या यथासम्भव अंकों में ही दी गई है. इससे अष्टकर्म व आठकर्म की जगह ८ कर्म लिखा होने से वे अलग-अलग से न मिलकर, एक ही जगह मिलेंगे. जहाँ तक हो सका है, संख्याओं को नाम के प्रारम्भ में ही ले लिया गया है.
८. मूल सूची में प्रत व पेटाकृति नाम के रूप में प्रतिलेखक द्वारा प्रत में उल्लिखित कृति नाम को ही रखकर, कृति नाम के रूप में, कृति का यथार्थ व बहुमान्य नाम रखने का नियम अपनाया गया है. इस वजह से प्रत, पेटाकृति नाम व उसके नीचे आने वाली कृति नाम में उल्लेखनीय भिन्नता मिल सकती है. इससे एक ही कृति के अनेकविध प्रचलित नामों का भी पता चल जाता है. यथा
प्रत नाम - बारसासूत्र या पज्जोसणा कप्पो या दशाश्रुतस्कंध अष्टम अध्ययन
कृति नाम कल्पसूत्र
९. जिन कृतियों के अंत में प्रत क्रमांक की जगह प्रतहीन ऐसा लिखा हो, वहीं यह समझना होगा कि प्रस्तुत कृति मात्र उसके नीचे दिए गये पुत्रादि कृतियों का संबंध बताने हेतु है.
१०. यथावश्यक कृति नामों में विशेषण अंत में दिए गए हैं, ताकि मूल नामों में एकरूपता बनी रहे और अकारादि क्रम में वे एक साथ आएँ. यथा - २४ अनागत जिन स्तवन के स्थान पर २४ जिन स्तवन- अनागत लिखा गया है. इसी तरह शंखेश्वरमंडन पार्श्वजिन स्तवन की जगह पार्श्वजिन स्तवन- शंखेश्वरमंडन दिया गया है.
११. प्रत की अपूर्णता आदि कारणों से जिन कृतियों के आदिवाक्य नहीं मिल सके हैं, वहाँ आदिवाक्य में (-) ऐसा चिह्न दिया गया है.
१२. गाथा आदि छोटे परिमाणवाली मारूगुर्जर आदि देशी भाषा की कृतियों में भाषा क्वचित्, वास्तव में राजस्थानी, गुजराती या प्राचीन हिन्दी हो सकती है. कई बार कालांतर व क्षेत्रांतर की वजह से 'गुजराती, राजस्थानी' आदि देशी भाषा की एक ही कृति हेतु विभिन्न प्रतों में भाषा के स्वरूपों में इतना परिवर्तन मिलता है कि यथार्थ भाषा का निर्धारण दुरुह हो जाता है. ऐसी स्थिति में सुविधा की दृष्टि से उस कृति की भाषा के रूप में पश्चिमोत्तर भारत की प्राचीन भाषा
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'मारुगुर्जर' लिखने का नियम रखा है.
१३. संभावित अप्रकाशित कृतियों का नाम ( आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की कम्प्यूटर आधारित सूचना प्रणाली में अब तक उपलब्ध माहिती के अनुसार ) italics में मुद्रित किया गया है. यथा- अजितशांति स्तव-बोधदीपिका टीका. अनेक प्रकाशनों की विस्तृत सूचना अभी भी कम्प्युटर में प्रविष्ट करनी बाकी है एवं बहुत-सी प्रविष्ट कृतिगत सूचनाओं
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