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अंत में (#) का चिह्न लगाया गया है. सूची में इनका उल्लेख 'दशा वि.' के तहत प्राप्त होगा. ३. प्रतनाम : यह नाम प्रत में रही कृति/कृतियों की प्रत में उपलब्धि तथा कृति/कृतियों के प्रत में उपलब्ध नाम के आधार से बनता
है. यथा- बारसासूत्र, आवश्यकसूत्र सह नियुक्ति व टीका, कल्पसूत्र सह टबार्थ व पट्टावली, गजसुकुमाल रास व स्तवन संग्रह, स्तवन संग्रह, जीवविचार, कर्मग्रंथ आदि प्रकरण सह टीका... इत्यादि. प्रत माहिती स्तर व पेटाकृति माहिती स्तर
में दिए गए नामों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण प्रथम खंड के पृष्ठ ३३-३४ पर देखें. ४. पूर्णता - हस्तप्रत की उपयोगिता व स्पष्टता को ध्यान में रखते हुए पूर्णता निम्न प्रकार से वर्गीकृत की गई है..
१. संपूर्ण : पूरी तरह से संपूर्ण प्रत, २. पूर्ण : मात्र एक देश से अत्यल्प अपूर्ण प्रतों को अपूर्ण न कह कर 'पूर्ण' संज्ञा
दी गई है, ३. प्रतिपूर्ण : प्रतिलेखक द्वारा कोई खास अध्याय अंश मात्र ही लिखा गया हो और उतना संपूर्ण हो, ४. अपूर्ण : प्रत के आदि/अंत या मध्य का एक बड़ा अंश अनुपलब्ध हो.५. त्रुटक : बीच-बीच के अनेक पत्र अनुपलब्ध
हों. ६. प्रतिअपूर्ण : प्रतिलेखक ने ही कोई खास अध्याय मात्र ही लिखा हो और उसमें भी पत्र अनुपलब्ध हो. ५. प्रतिलेखन संवत् : प्रत में विक्रम, शक आदि संवत् उपलब्ध हो तो वही वास्तविक रूप से दिया गया है, अन्यथा लेखन शैली,
अक्षरों की लाक्षणिकता आदि के आधार पर विक्रम संवत् के अनुमानित शतक का उल्लेख किया गया है. इसके बाद प्रत में यथोपलब्ध वर्ष संख्या सूचक सांकेतिक शब्द - जो कि 'अंकानां वामतो गतिः' नियम से पढे जाते हैं - दिए गए हैं. तत्पश्चात वर्ष के संबंध में यदि कोई बात विचारणीय शंकास्पद लगी हो तो तत् सूचक '?' प्रश्नार्थ दिया गया है. उसके बाद मासनाम, अधिक मास संकेत, पक्ष तिथि, अधिक तिथि संकेत व वार यथोपलब्ध क्रमशः दिए गए हैं. क्वचित यथोपलब्ध वर्ष
की एक अवधि भी दी गई है कि इन वर्षों के बीच यह प्रत लिखी गई है. ६. प्रत दशा प्रकार ('प्र. दशा') : श्रेष्ठ, मध्यम, जीर्ण. दशा सम्बन्धी विशेष माहिती अनुच्छेद १४ के अंतर्गत दी गई है. ७. पृष्ठ माहिती (पृ.) : प्रत के प्रथम व अंतिम उपलब्ध पृष्ठांक, घटते-बढते पृष्ठ का योग तथा पृष्ठांक एवं कुल उपलब्ध
पृष्ठ, इतनी माहिती यहाँ आएगी. यथा - १ से ५०-४ (५,७, १५, २७) = ४६; ५ से ६०-३ (३*, १७, १८) = ५३; ५ से ६०-३ (३*, १७, २८) + २ (४, ३५) = ५५. यहाँ अंक पर * का चिह्न अवास्तविक घटते पत्र का सूचक है एवं '-' व '+'
के चिह्न घटते व बढते पत्र के सूचक है. ८. कुल पेटाकृति : प्रत में यदि पेटाकृतियाँ हो तो उनका कुल योग यहाँ आएगा. ९. पूर्णता विशेष (पू.वि.) : प्रत के प्रारंभ से अंत तक के पाठ किसी कारण से अनुपलब्ध हो तो यहाँ पर मात्र अन्त के पत्र
नहीं हैं, उसकी स्पष्टता की जाती है. इसके अतिरिक्त अपूर्णता प्रत में दिये पत्रांक से पता चल ही जाता है. पेटाकृति विहीन प्रत संपूर्ण नहीं होने पर कृति का कौन सा अंश उपलब्ध/अनुपलब्ध है, यह स्पष्टता भी यथाशक्य यहाँ देने का प्रयास किया गया है. यथा - दशवैकालिक सूत्र - अध्ययन ९ की प्रारंभिक ५ गाथा पर्यंत है. अथवा दूसरी चूलिका की अंतिम १९ गाथाएँ नहीं हैं. प्रत में यदि मूल के साथ टीका, टबार्थ आदि एकाधिक कृति हो और मूल की पूर्णता से यदि
टीकादि की पूर्णता भिन्न हो तो ऐसे में पूर्णता की विशेष सूचना यहाँ न देकर कृति के साथ दी गई है. १०. प्रतिलेखन स्थल माहिति (ले.स्थल) : जिस स्थल पर प्रत-लेखन कार्य हुआ हो, उसका उल्लेख यहाँ दिया गया है. ११. प्रतिलेखक आदि : प्रत की प्रतिलिपि लिखने-लिखवाने वाले विद्वान या लहिया आदि के नाम गुरू, गच्छ माहिती के साथ
यहाँ दिए गए हैं. उपदेशेन, क्रीत, गच्छाधिपति, पठनार्थे, प्रतिलेखक, राज्यकाल, लिखापितं, विक्रीत, व्याख्याने पठित,
व्याख्याने श्रुत, समर्पित इत्यादि प्रकारों के विद्वान/व्यक्तियों का उल्लेख यहाँ दिया गया हैं.. १२. प्रतिलेखन पुष्पिका उपलब्धि संकेत (प्र.ले.पु.) : प्रत में प्रतिलेखन पुष्पिका (प्रतिलेखक सम्बन्धी विस्तृत परंपरा का
उल्लेख) की उपलब्धि की मात्रा के अग्रलिखित संकेत यहाँ दिए गए हैं. जैसे- प्रतिलेखन पुष्पिका अंतर्गत १ से लेकर ३ विद्वानों तक की सूचनाएँ प्रत में प्राप्त होती हैं तो सामान्य दिया गया है, ३ से लेकर ५ तक मिल रहे विद्वानों की
सूचनाओं को मध्यम तथा ५ से ज्यादा मिल रहे विद्वानों हेतु विस्तृत प्रतिलेखन पुष्पिका प्रकार दिया गया है. १३. प्रतविशेष (प्र.वि.): प्रत सम्बन्धी शेष उल्लेखनीय अन्य मुद्दों एवं प्रतगत कृति सम्बन्धी परन्तु सम्भवतः इसी प्रत में उपलब्ध
ऐसी उल्लेखनीय बातों का समावेश यहाँ किया गया है. प्रत क्रमांक के साथ (+) (-) द्वारा सूचित प्रत विशेषताओं का
उल्लेख भी यहाँ होगा. १४. दशा विशेष (दशा.वि.) : प्रत क्रमांक के साथ () द्वारा सूचित प्रत की जीर्ण दशा व उसकी मात्रा आदि सम्बन्धी स्पष्टता
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