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परम पूज्य राष्ट्रसंत प्रवचन प्रभावक युग प्रवर्तक आचार्य भगवंत श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की दीक्षा पर्याय के स्वर्णिम ५० वर्ष पूज्यपाद आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का जन्म भाद्रपद सुदी ११ वि.सं. १९९१ के दिन विद्वानों चिन्तकों, समाजसुधारकों व श्रमण निग्रंथों की विहार भूमि पश्चिम बंगाल स्थित अजीमगंज शहर में हुआ. आपश्री ने बचपन से ही शीलवती माता के कुशल मार्गदर्शन में सुसंस्कारों को ग्रहण करते हुए धार्मिकता की ओर उन्मुख होकर अपने मार्ग का अन्वेषण प्रारम्भ कर दिया था. प्रारम्भिक शिक्षा अजीमगंज में तथा शिवपुरी (म.प्र.) में धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण की. स्वामी विवेकानंद से काफी प्रभावित और प्रेरित हुए पूज्यश्री ने किशोरावस्था में ही संपूर्ण भारत का भ्रमण किया. विद्वानों की सत्संगति शास्त्रों का अध्ययन आपश्री की विशिष्ट अभिरूचि रही है. वि. सं. २०११ को साणंद नगर में कार्तिक वदी ३ को प.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्त से दीक्षा ग्रहण कर उन्हीं के शिष्य प्रवर प.पू. शिल्पशास्त्रमर्मज्ञ आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य बने.
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आपश्री के पुण्य प्रभाव, प्रतिभा एवं शासन प्रभावना के उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए अहमदाबाद में मार्गशीर्ष सुदि ५, वि.सं. २०३० में गणिपद, जामनगर में फाल्गुन सुदि ७, वि.सं. २०३२ को पंन्यास पद तथा महेसाणा के श्री सीमंधरस्वामी जिनप्रासाद के विशाल प्राङ्गण में तत्कालीन गच्छाधिपति दादा गुरु आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. तथा वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी म. सा. व शिल्पशास्त्रमर्मज्ञ आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में मार्गशीर्ष वदि ३, वि.सं. २०३३ को आचार्य पद से विभूषित किया गया. विविध संघों एवं लब्धप्रतिष्ठ महानुभावों ने आपश्री को राष्ट्रसंत, प्रवचन प्रभाकर, सम्मेतशिखरतीर्थोद्धारक, उपदेशपटु, प्रखरवक्ता, श्रुतसमुद्धारक आदि पदवियों से अलंकृत कर सन्मानित किया है.
श्रुतसंवर्धक प्रवृत्तियों में निरंतर कार्यरत प.पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने समग्र भारतवर्ष सहित पड़ोसी देश नेपाल की जैन एवं जैनेतर जनता के मन में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है जिसे वह कभी भुला नहीं सकती. आपश्री ने अपने कदम जहाँ भी रखे वहाँ की जनता ने आपको अपने सद्गुरु का दर्जा दिया आपश्री की सत्प्रेरणा से अनेकानेक जैन शासन के प्राण प्रश्नों का सुखद समाधान हुआ है. संघों में एकता कायम करना, जैन धर्म के विविध विशेषज्ञों को संगठित करना (जैसेजैन संस्थान, जैन व्यापार उद्योग सेवा संस्थान, जैन डॉक्टर्स फेडरेशन, जैन सी.ए. फेडरेशन, जैन एडवोकेट फेडरेशन, जैन श्वे. मू. पू. युवक महासंघ आदि), जिन प्रासादों का निर्माण एवं समुद्धार, जन समुदाय को धार्मिक नीतियुक्त जीवन जीने के लिए अभिप्रेरित करना आदि आपश्री के विशिष्ट सत्कार्य हैं. सभी को साथ में लेकर चलने की भावना के कारण पूज्यश्री समग्र जैन समाज सहित अन्य धर्मावलम्बियों के बीच भी लोकप्रिय बने हैं तथा सभी का सन्मान प्राप्त करने का गौरव हासिल किया है.
यूं तो आपश्री की निश्रा में जिनशासन की प्रभावना के अनेकानेक उत्कृष्ट कार्य संपादित हुए हैं, जिसका वर्णन करने पर एक विशालकाय ग्रन्थ का सर्जन हो सकता है आपकी निश्रा में करीब ६५ से अधिक जिनालयों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा हुई है तथा अनेक समाजोपयोगी कार्य निष्पन्न हुए हैं फिर भी श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ तथा यहाँ पर संस्थापित ज्ञानतीर्थ स्वरूप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर परम पूज्य आचार्यश्री की कलिकाल में आध्यात्मिक सांस्कृतिक विरासत की अनोखी धरोहर के रूप में अद्भुत देन है, जो पूज्यश्री की अनुपम जिनशासन की सेवा, श्रुतभक्ति एवं श्रुतसेवा की मिसाल के रूप में युगों युगों तक आने वाली पीढ़ियाँ संजो कर रखेंगी.
परम पूज्य आचार्यदेव श्री के संयम जीवन के ५० वर्षों के कुछ उल्लेखनीय प्रसंग निम्नवत हैं
* गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बाबुभाई जसभाई पटेल को कह कर आपने शेत्रुंजी नदी के बाँध में होती जीव-हिंसा पर रोक लगवाई थी.
* बम्बई महानगर पालिका के स्कूलों में विद्यार्थियों को फुड-टॉनिक के रूप में अण्डे दिये जाने के प्रस्ताव को आचार्यश्री ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री शंकरराव चव्हाण को कहकर खारिज करवाने में अहम भूमिका निभाई थी.
* १९९३ में राजस्थान सरकार सभी ट्रस्टों में सरकारी प्रतिनिधि नियुक्त करने के लिए अध्यादेश लाने वाली है, यह बात जब गुरुदेव को ज्ञात हुई तो उन्होंने तत्कालीन गवर्नर श्री चेन्ना रेड्डी के समक्ष प्रभावपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रख कर अध्यादेश वापस करवाया, जिससे धर्म क्षेत्र सरकारी हस्तक्षेप से बच सका.
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