Book Title: Joindu krut Amrutashiti
Author(s): Sudip Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 3
________________ सुदीप कुमार जैन से अलग प्रमेयों का प्रतिपादन करते हैं। इस तथ्य को निम्न दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है अ) 'पुण्य' का महत्त्व—'अमृतशीति' में आचार्य जोइन्दु ने पुण्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हए, पुण्यात्मा होना आत्महित या धर्मलाभ के लिए आवश्यक बतलाया है, यद्यपि इसमें कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है, फिर भी यह कथन 'परमात्मप्रकाश' के उस प्रतिपादन से सर्वथा भिन्न है, जिसमें वे पुण्य को पाप के समान हेय व तुच्छ गिनाते हैं। (ब) 'समता' का महत्त्व-वैसे तो सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में समता या साम्यभाव का बड़ा ही महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । परन्तु परमात्मप्रकाश या योगसार में समता शब्द या इसके वाच्य को इतना महिमामंडित कहीं नहीं किया गया, जितना कि 'अमृताशीति' के १४वें से २५ वें छन्द तक प्राप्त होता है। वे 'समता' को कुलदेवता, देवी३, शरणस्थली, मैत्र्यादि की सखी' आदि अनेकों विशेषणों से छायावाद जैसी शैली में सम्बोधित करते हैं। (स) गुरु का अति महत्त्व-जैसे परवर्ती हिन्दी रहस्यवादी साहित्य में कबीर आदि सन्तों ने गुरु-रूप को अत्यन्त गौरव प्रदान किया है, उसी प्रकार 'अमृताशीति' में भी कई स्थलों पर गुरु की अपार महिमा व अनिवार्यता प्रदर्शित की गई है। यह वर्णन देव-शास्त्र-गुरु के आत्महित में निमित्तरूप प्रतिपादन के सामान्य महत्त्व से हटकर भिन्न शैली में प्रस्तुत किया गया है। (द) हठयोग शब्दावली हठयोग व योगशास्त्रीय शब्दों का किंचित् प्रयोग यद्यपि 'योगसार' में भी आया है, परन्तु 'अमृताशीति' में प्रचुर मात्रा में इस शब्दावली का प्रयोग है। कई शब्द तो ऐसे भी हैं, जो कि जोइन्दु ने 'योगसार' में भी प्रयुक्त नहीं किये गये हैंयथा-स्वहंसहरिविष्टर , अर्हहिमांशु', अहमंत्रसार", द्वैकाक्षरं, पिण्डरूपं, अनाहतं १. अमृताशीति छन्द २रे से ९ वें छन्द तक । २. वही, छन्द १९ ३. वही, छन्द १ ४. वही, छन्द २२, ५. वही, छन्द २५, ६. वही, छन्द २७ ७. योगसार दोहा ९८ ८. अमृताशीति छन्द २९ ९. वही, छन्द ३२ १०. वही, छन्द ३३ ११. वही, छन्द ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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