Book Title: Joindu krut Amrutashiti
Author(s): Sudip Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 2
________________ जोइन्दु कृत अमृताशीति अमृताशीति ) के सर्वमान्य टीकाकार मुनि बालचन्द्र ( ई० १३५० ) ने जो सिद्धान्त चक्रवर्ती नभकीर्तिदेवके शिष्य थे, इन चारों ग्रन्थों की टीकाओं के प्रारम्भ में एक ही पंक्ति दी है 'श्री योगीन्द्रदेवरु प्रभाकरभट्टप्रतिबोधनार्थम् ....... अभिधानग्रन्थम् । इससे स्पष्ट होता है कि १४ वीं शताब्दी तक यह आचार्य जोइन्दु द्वारा विरचित ग्रन्थ के रूप में सर्वमान्य था। ये वही आचार्य जोइन्दु थे जिन्होंने प्रभाकर भट्ट नामक शिष्य के अनुरोध पर ग्रन्थ की रचना की थी। ( ३ ) अमृताशीति की प्रशस्ति में उन्होंने अपना नामोल्लेख भी किया है। अमृताशीति के बारे में अन्य विप्रतिपत्तियाँ (क ) डॉ हीरालाल जैन ने 'परमात्मप्रकाश' की प्रस्तावना में इसे अपभ्रंश भाषा का ग्रन्थ कहा गया है। जबकि मुझे प्राप्त इसकी एकमात्र तथा कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रति विशुद्ध संस्कृत भाषा में निबद्ध है तथा 'नियमसार' की टीका में उद्धृत पाँचों श्लोक भी संस्कृत के ही हैं। इस स्थिति में डॉ० हीरालाल जी द्वारा इसे अपभ्रंश का ग्रंथ कहने का क्या आधार रहा है, यह अज्ञात है। (ख ) डॉ० हीरालाल जी ने इसे ८२ छन्दों का ग्रन्थ बताया है। जबकि उपलब्ध पाण्डुलिपि में ८० छन्द ही हैं । डॉ० हीरालालजी को इस ग्रन्थ की कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई थी, फिर पता नहीं उन्होंने किस आधार पर इसे ८२ छन्दों के परिमाण वाला कहा। (ग) पं० नाथूराम प्रेमी इसका अपरनाम 'अध्यात्मसंदोह' मानते हैं, परन्तु यह निराधार प्रतीत होता है। (घ) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोशकार ने ( अध्यात्मसंदोह को) प्राकृत का ग्रन्थ कहा है। परन्तु इस मान्यता का कोई आधार नहीं दिया है। (ङ) 'अमृताशीति' को जैनेन्द्रसिद्धान्तकोशकार अपभ्रंश भाषा का ग्रन्थ मानते हैं, परन्तु क्यों ? यह प्रश्न वहाँ भी अनुत्तरित ही है। विषयगत वैशिष्ट्य ___'अमृताशीति' में प्रतिपादित तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन रोचक व महत्त्वपूर्ण है। इसमें कई तथ्य ऐसे प्राप्त होते हैं जो 'परमात्मप्रकाश' तथा 'योगसार' में प्रतिपादित मान्यताओं १. अमृताशीति की कन्नड़ टीका ( मुनिबालचन्द्र कृत ) की उत्थानिका २. अमृताशीति, छन्द ८० वाँ । ३. परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना, डॉ० हीरालाल जैन पृ० ११६ (जैनेन्द्र सि०को० भाग१, पृ० १३७ ) ४. वही ५. जै० सि० को० भाग १, पृ० ५४ । ६. वही ७. जै० सि० को० भाग ३, पृ० ४०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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