Book Title: Jo Kriyavan hai wahi Vidwan Hai
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 4
________________ * 356 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व होना चाहिये / हमारी समाज व्यवस्था में कहीं न कहीं ऐसी कमी है जिसके कारण तरह-तरह की बाहरी विषमताएँ हैं। समाज एक शरीर की तरह है और व्यक्ति शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में / शरीर के विभिन्न अंग आँख, नाक, कान, उदर आदि अलग-अलग स्थानों पर स्थिति होकर भी अलगाव नहीं रखते, उनमें सामंजस्य है / पेट यद्यपि जो कुछ हम खाते हैं उसे पचाता है, रस रूप बनाता है, पर वह उसे अपने तक सीमित नहीं रखता। रक्त रूप में वह शरीर के सभी अंगों को शक्ति और ताजगी देता है। समाज में श्रीमंत शरीर में पेट की जगह हैं। वे अपनी सम्पत्ति जमा करके नहीं रखें, सभी के लिए उसका सदुपयोग करें / शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, वही स्थान समाज में विद्वानों का है। मस्तिष्क जैसे शरीर के सभी अंगों की चिन्ता करता है, उनकी सारसभाल करता है, वैसे ही विद्वानों को समाज के सभी अंगों की चिन्ता करनी चाहिये। समाज में दया, करुणा और सेवा की भावना जितनी-जितनी बढ़ेगी उतना-उतना मानवता का विकास होगा। सुखी और शांत बने रहने के लिए आवश्यक है विपरीत स्थितियों में भो द्वष रखने वाले लोगों के प्रति भी समभाव रखना, माध्यस्थ भाव बनाये रखना। समाज में कई तरह की वृत्तियों वाले लोग हैं-व्यसनी भी हैं, हिंसक भी हैं, भ्रष्ट आचरण वाले भी हैं / पर उनसे घृणा न करके उनको व्यसनों और पापों से दूर हटाने के प्रयत्न करना विद्वानों का कर्तव्य है / घृणा पापियों से न होकर पाप से होनी चाहिये / हम सबका यह प्रयत्न होना चाहिये कि जो कूमार्ग पर चलने वाले हैं, उनमें ऐसी बुद्धि जगे कि वे सुमार्ग पर चलने लगें। वह दिन शुभ होगा जब व्यक्ति, समाज और विश्व में इस प्रकार की सद्भावनाओं का व्यापक प्रचार-प्रसार होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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