Book Title: Jo Kriyavan hai wahi Vidwan Hai Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. • ३५५ पाज अधिकांशतः समाज में यही हो रहा है। बेपढ़े-लिखे लोग स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा भ्रष्ट आचरण नहीं करते, जो तथाकथित पढ़े-लिखे लोग करते पाये जाते हैं । बिज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जिस ज्ञान का विकास हुआ, उसका उपयोग मानव-कल्याण और विश्व-शान्ति के बजाय मानवता के विनाश और भय, असुरक्षा अशान्ति की परिस्थितियाँ पैदा करने में ज्यादा हो रहा है। आज जैन विद्वानों को आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। वे यह सोचें कि उनके अपने ज्ञान का उपयोग स्व-पर कल्याण में, धार्मिक रुचि बढ़ाने में, समाज संगठन को मजबूत बनाने में कितना और कैसा हो रहा है ? जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा और समता है। सामायिक और स्वाध्याय के अभ्यास द्वारा ज्ञान को प्रेम और मैत्री में ढाला जा सकता है। प्राचार्य अमित गति ने चार भावनाओं का उल्लेख करते हुए कहा है-- "सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदम्, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विद्धातु दैव ॥" अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री हो, गुणीजनों के प्रति प्रमोद हो, दुःखियों के प्रति करुणा हो और द्वेषभाव रखने वालों के साथ माध्यस्थ भाव-समभाव हो। यह भावना-सूत्र व्यक्ति और समाज के लिए ही नहीं प्रत्येक राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक सूत्र है । इस सूत्र के द्वारा विश्व-शन्ति और विश्व-एकता स्थापित की जा सकती है । संसार में जितने भी प्राणी हैं उनके प्रति मित्रता की भावना सभी धर्मों का सार है । जैन धर्म में तो सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी की रक्षा करने पर भी वल दिया गया है, फिर मानवों की सहायता और रक्षा करना तो प्रत्येक सद्-गृहस्थ का कर्तव्य है । आज समाज में आर्थिक विषमता बड़े पैमाने पर है। समाज के कई भाई-बहिनों को तो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी नसीब नहीं है। समाज के सम्पन्न लोगों का दायित्व है कि वे अपना कर्तव्य समझकर उनके सर्वांगीण उत्थान में सहयोगी बनें । __समाज में धन की नहीं, गुण की प्रतिष्ठा होनी चाहिये । यह तभी सम्भव है जब हम गुणीजनों को देखकर उनके प्रति प्रमोद भाव व्यक्त करें। जिस भाई. बहिन में जो क्षमता और प्रतिभा है, उसे बढ़ाने में मदद दें। पड़ोसी को आगे बढ़ते देख यदि प्रमोद भाव जागृत न होकर ईर्ष्या और द्वेष भाव जाग्रत होता है, तो निश्चय ही हम पतन की ओर जाते हैं। जो दुःखी और पीड़ित हैं, उनके प्रति अनुग्रह और करुणा का भाव जागत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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