Book Title: Jivan me Shraddha ka Sthan Author(s): Anandrushi Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 5
________________ પૂજ્ય ગુરુદેવ કવિધય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ अपनी आत्मा को विशुद्ध वनाने के लिए दोषों से बचते हुए जो व्यक्ति श्रद्धा-पूर्वक थोडा भी कुछ करेगा उससे भी वह अधिक लाभ उठा सकेगा। वस्तुतः सम्यक् दर्शन या शुद्ध श्रद्धा का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार सूर्य का उदय सष्टि को नया रूप, नया जीवन प्रदान करता है, रजनी का निबिड़ अन्धकार सहस्त्ररश्मि के उदित होते ही असीम आलोक के रूप में पलट जाता है और चराचर जगत में एक नूतन स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन का उन्मेष होने पर आत्मा की भी ऐसी ही स्थिति होती है / जब तक सम्यग्दर्शन उदय नहीं होता, आत्मा जड़ता-ग्रस्त और प्राणविहीन सा बना रहता है। मगर सम्यग्दर्शन का उदय होते ही आत्मा में एकदम नवीन आलोक उत्पन्न होता है और वह आलोक उसमें एक ऐसा स्पन्दन पैदा करता है, जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया होता। सम्यग्दर्शन की अपूर्व ज्योति आत्मा के विचारों पर तो गहरा प्रभाव डालती ही है, व्यवहार में भी आमूल-चूल परिवर्तन उत्पन्न कर देती है। विचार और आचार में गहरा सम्बन्ध है। आचार विचार का क्रियात्मक मूर्त रूप है और विचार व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर है। अतएव जब हमारी दृष्टि में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है तो आचार एवं विचार पर उसका असर न हो यह असम्भव है / यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होते ही मनुष्य महाव्रत अथवा अणुव्रत अंगीकार कर सर्वव्रती या देशव्रती वन जाय, तथापि यह निश्चित है कि उसकी जीवन प्रणाली में उसके व्यवहार में महान अन्तर आ जाता है। सम्यग्दर्शन या शुद्ध श्रद्धा का मुख्य कार्य यह है कि वह व्यक्ति की जीवन दृष्टि को बदल देते हैं। उसे भोगोन्मुख से आत्मोन्मुख बना देते हैं / यही श्रद्धा जीवन में मुख्य कार्य है, जिस से व्यक्ति आसक्ति, ममत्व और राग के घेरे से उपर उठकर परमतत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है। आत्मिक उत्क्रान्ति के सोपान -प्र. वक्ता श्री सौभाग्यमलजी महाराज : अनन्त अतीत काल में जब मानव ने विचार के क्षेत्र में प्रवेश किया, उसके सामने यह बरावर प्रश्न एक गूढ़ पहेली के रूप में उपस्थित हुआ। प्रकृति की अद्भुत लीलाएं -हिमाच्छादित उत्तुंग शिखरें, उफनते हुए नदी-नाले, सागर की अथाह जलराशि, विशाल मरूस्थल, घने वन- आकाश में जगमगाने वाली असंख्य तारक मालि बिजली की चकाचौंध आदि को देखकर विचारशील मानव को सहज जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि यह क्या हैं ? क्यों हैं ? कब से हैं ? इसका कोई कार्य-कारण है या नहीं? आदि अगणित प्रश्न मानव के मस्तिष्क में उठने लगे। जिज्ञासा का यह प्रवाह आगे बढ़ता चला। विचारों का वेग निरन्तर चलता रहा। उसके चिन्तन का क्षेत्र व्यापक होता गया। उसके सामने प्रश्न खड़ा हुआ कि क्या यह विश्व इतना ही है, जितना दिखाई पड़ता है या इस दृश्यमान जगत् से / सत्ता है? यह स्थूल जगत् ही सब कुछ है या कोई सूक्ष्म तत्त्व भी विद्यमान है ? इसी संदर्भ में सोचते हुए उसे अपने सम्बन्ध में प्रश्न हुआ कि "मैं क्या हूँ ? क्या मैं जड़ भूतों का पिण्ड हूं या उससे पृथक् चेतन तत्त्व की विराट सत्ता हूँ? इन प्रश्नों ने मानव की चिन्तन-धारा को अविरत गति प्रदान की। निरन्तर काल से इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार होता चला आया है। महामनीषी चिन्तकों और विचारकों ने इन प्रश्नों को विभिन्न दृष्टिकोणों से उत्तरित करने के प्रयास किये हैं। इन प्रश्नों और उत्तरों का अध्ययन ही विचारणीय है। आत्मिक उत्क्रान्ति के सोपान 353 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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