Book Title: Jivan me Shraddha ka Sthan
Author(s): Anandrushi
Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf

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Page 1
________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવય પં. નાનાન્દ્રે મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ जीवन में श्रद्धा का स्थान आज का भारतीय जीवन इतना श्रीहीन, शक्तिहीन, क्षीण और दलित क्यों है ? इसका प्रधान कारण है, मनुष्यों के हृदय में श्रद्धा का अभाव । अश्रद्धा और सन्देह से परिपूर्ण हृदय वाला व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक किसी भी क्षेत्र मँ प्रगति नहीं कर पाता है, क्योंकि वास्तविक शक्ति का स्रोत आत्मा है और श्रद्धा के अभाव में आत्मबल का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । महात्मा गांधी का कथन है To trust is a virtue, It is weakness that begets distrust. विश्वास एक सद्गुण है और अविश्वास दुर्बलता की जननी है। श्रद्धा या विश्वास के अभाव में व्यक्ति जो भी कार्य करता है, उसमें कभी सफलता हासिल नहीं कर पाता । सन्देह का अन्धकार उसे पथभ्रष्ट कर देता है । उस पर यह कहावत चरितार्थ होती है कि - "दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम" -आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म० सा० श्रद्धा ही जीवन की रीढ़ है। जैसे बिना रीढ़ के जिस प्रकार शरीर गति नहीं करता, उसी प्रकार श्रद्धा के अभाव में जीवन गति नहीं करता है। श्रद्धा ही मनुष्य मनुष्यता का सृजन करती है और वही उसे कल्याण के पथ पर अग्रसर करती है । जिस व्यक्ति के हृदय में श्रद्धा नहीं होती, उसका मन चंचल बना रहता है। उसके विचारों में तथा क्रियाओं में कभी स्थिरता और दृढ़ता नहीं आ पाती है। इस कारण यह एकनिष्ठ होकर किसी भी साधना में नहीं लग पाता । कभी वह एक राह पर चलता है तो कभी दूसरी पर, परिणाम यह होता है कि वह अपने किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता । अपने अस्थिर और विभिन्न विचारों के कारण सदा भटकता रहता है और भव-भ्रमण बढ़ाता है । इसके विपरीत जो श्रद्धावान् पुरुष होता है, वह अपने अटल विश्वास के द्वारा इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। गीता में कहा गया है जिस व्यक्ति का अन्तःकरण श्रद्धा से पूर्ण होता है, वह सम्यक् ज्ञान प्राप्त करता है और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके शीघ्र ही अक्षय शान्ति अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी भी बन जाता है । श्रद्धावांलभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ यह सारी करामात केवल श्रद्धा की है। वही प्राणी को पापों से परे रखती हुई आत्म शुद्धि के मार्ग पर बढ़ाती है। श्रद्धा के न होने पर मनुष्य कितनी भी विद्वत्ता क्यों न प्राप्त कर ले, उसका कोई लाभ नहीं होता । विद्वत्ता की शक्ति श्रद्धा में निहित है। श्रद्धावान विद्वान न होने पर भी अपने कर्म नाश करके संसार-सागर को पार कर लेता और श्रद्धा के विना विद्वान उसमें गोते लगाता रहता है। एक आचार्य ने लिखा है जीवन में श्रद्धा का स्थान अश्रद्धा घोर पाप है और श्रद्धा समस्त पापों का नाश करने वाली है। श्रद्धालु पुरुष समस्त पापों का उसी प्रकार त्याग कर देता है, जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को छोड़ देता है । Jain Education International अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापप्रमोचिनी । जहाति पापं श्रद्धावान्, सर्पो जीर्णमिव त्वचम् ॥ इसका अभिप्राय यही है कि अगर मनुष्य अपने जीवन में किसी भी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करना चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम श्रद्धावान बनना चाहिये । श्रद्धा के बिना उसमें दृढ़ता, संकल्प, शक्ति और साहस कदापि उत्पन्न न होगा और इन सबके अभाव में सिद्धि कोसों दूर रह जाएगी । क्योंकि जो व्यक्ति शंका और अविश्वास के चक्कर में पड़ा रहेगा, वह प्रथम तो For Private Personal Use Only ३४९ www.jainelibrary.org

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