Book Title: Jivan me Shraddha ka Sthan
Author(s): Anandrushi
Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf

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Page 3
________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ દ્વવિદ્યા પં. નાનાન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ पर आज कहां है ऐसी प्रगाढ़ श्रद्धा ? आज तो एक-एक पाई के लिए लोग धर्म को बेच देने के लिए तैयार हो जाते हैं । पैसे-पैसे के लिए भगवान की और धर्म की कसम खा जाते हैं। पर अन्त में उनके हाथ क्या आता है ? कुछ भी नहीं, केवल पश्चात्ताप करते हुए यही कहना पड़ता है - वर्तमान भ्रष्टाचार का कारण यही है कि आज के मनुष्य में श्रद्धा का सर्वथा अभाव है । उसे यह विश्वास नहीं है कि हमारा पूर्वजन्म था और अगला जन्म भी होगा। पहले हमने जैसे कर्म किये थे, उनके अनुसार यह जन्म मिला है और अब जैसे करेंगे, वैसा अगले जन्म में प्राप्त होगा । उसे यह विश्वास नहीं है कि आत्मा अजर, अमर और अक्षय है। श्रद्धाहीन पुरुष यही समझते हैं कि जो कुछ भी है, यही जीवन है और इसमें जितना सांसारिक सुख प्राप्त कर लिया जाय करना चाहिये । यह विचार करता हुआ मानव विषय-भोगों की ओर अधिकाधिक उन्मुख होता है, किन्तु उनसे उसे तृप्ति कभी नहीं मिल पाती, क्योंकि तृष्णा या लालसा एक ऐसी कभी न बूझने वाली आग है, जो सदा जलती रहती है और जब तक जलती है जीव को शांति प्राप्त नहीं होती । एक उर्दू के कवि ने कहा भी है न खुदा ही मिला, न विसाले - मनम, न इधर के रहे न उधर के रहे ।। ज्यों-ज्यों मनुष्य भोगों की ओर प्रवृत्त होता गया, उसका रास्ता और भी खतरनाक बनता चला गया । अर्थात् विषय-भोगों से उसने जितना सुख पाने का प्रयत्न किया, उतनी ही उसकी व्याकुलता अधिकाधिक सुख पाने के लिए बढ़ती गई । इसलिए महापुरुष कहते हैं कि सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय भोगतृष्णा का निरोध करना है । जो भव्य प्राणी इस बात को समझ लेते हैं वे तनिक सा निमित्त मिलते ही समस्त भौतिक सुखों को ठोकर मार देते हैं किन्तु यह सच्ची आत्म-श्रद्धा के बिना सम्भव नहीं है । जिन्दगी की जल्जतों में, जिस कदर आगे बढ़े । दिलकशी के साथ रास्ता पुर खतर होता गया ॥ सच्ची आत्म-श्रद्धा ही आत्मोत्थान का मूल कारण है। श्रद्धा के अभाव में कोई भी मानव इस भव-सागर से पार उतरने में समर्थ नहीं हो सकता । प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि देव, गुरू और धर्म में सच्ची श्रद्धा रखने से क्या नहीं हो सकता ? पूज्यपाद अमिऋषि जी म० कहते हैं - तारे गौतमादि कुवचन के कहनहारे गौशालक जैसे अविनीत को उधारे हैं । चंडकोष अहि वेह सम्यक् निहाल कियो, सती चंदना के सर्वे संकट विदारे हैं । महा अपराधी के न आने अपराध उर, शासन के स्वामी ऐसे दीन रखवारे है । कहे अमीरख मन राखरे भरोसा दृढ़, ऐसे ऐसे तारे फिर तोहि क्यों न तारे हैं । जीवन में श्रद्धा का स्थान जब कटुवचन बोलने वाले गौतम को, अविनीत गोशालक को तथा महाविषवर चंडकौशिक को सम्यकत्वरत्न प्रदान कर निहाल कर दिया तथा चंदना जैसी महासतियों के समस्त संकटों को दूर किया, तो फिर अपराधियों के अपराधों पर ध्यान न देने वाले वीर प्रभु तुझे क्यों नहीं तारेंगे ? अर्थात् अवश्य तारेंगे। कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक मुमुक्षु के हृदय में यह सम्यक् श्रद्धा होनी चाहिये कि उसका भी उद्धार हो सकता है । Jain Education International For Private Personal Use Only ३५१ www.jainelibrary.org

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