Book Title: Jivan Ka Arthvetta Ahimsa Me Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 6
________________ न किसी का घात करे, न कराए।' सभी प्राणी सुख के चाहने वाले हैं, इनका जो दण्ड से घात नहीं करता है, वह सुख का अभिलाषी मानव अगल जन्म में सुख को प्राप्त करता है। इस प्रकार तथागत बुद्ध ने भी हिंसा का निषेध करके अहिंसा की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया है। तथागत बुद्ध का जीवन 'महाकारुणिक जीवन' कहलाता है। दीन-दुःखियों के प्रति उनके मन में अत्यन्त करुणा भरी थी। सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी उन्होंने तीर्थकर महावीर की भाँति अनेक प्रसंगों पर अहिंसात्मक प्रतिकार के उदाहरण रखे। उनकी अहिंसात्मक और शान्तिप्रिय वाणी से अनेक बार घात-प्रतिघात में, शौर्य प्रदर्शन में युद्ध-रत क्षत्रियों का खून बहता-बहता रुका है। भगवान् महावीर की भाँति तथागत बुद्ध भी श्रमण-संस्कृति के एक महान प्रतिनिधि थे। उन्होंने भी सामाजिक व राजनीतिक कारणों से होने वाली हिंसा की आग को प्रेम और शान्ति के जल से शान्त करने के सफल प्रयोग किए, और इस प्रास्था को सुदृढ़ बनाया कि समस्या का प्रतीकार सिर्फ तलवार ही नहीं, प्रेम और सद्भाव भी है। यही अहिंसा का मार्ग वस्तुतः शान्ति और समृद्धि का मार्ग है। वैदिक-धर्म में अहिंसा-भावना : वदिक धर्म में भी अहिंसा की प्रधानता है। "अहिंसा परमो धर्मः" के अटल सिद्धान्त को सम्मुख रखकर उसने भी अहिंसा की विवचना की है। अहिंसा ही सब से उत्तम पावन धर्म है, अतः मनुष्य को कभी भी, कहीं भी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं है, उसे दूसरों के लिए कभी न करो। इस नश्वर जीवन में न तो किसी प्राणी की हिंसा करो और न किसी को पीड़ा पहुँचाओ, बल्कि सभी आत्माओं के प्रति मैत्री-भावना स्थापित कर विचरण करते रहो। किसी के साथ वैर न करो।' जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे है। इसलिए बुद्धिमान और पुण्यशाली जो लोग हैं, उन्हें चाहिए कि वे सभी प्राणियों को अपने समान समझें। इस विश्व में अपने प्राणों से प्यारी दूसरी कोई वस्तु प्रिय नहीं हैं। इसलिए मानव जैसे अपने ऊपर दया-भाव चाहता है, उसी प्रकार दूसरों पर भी दया करे। दयालु आत्मा १. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ।। -सुत्तनिपात, ३।३१७।२७ २. सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न विहिंसति । ___ अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो लभते सुर्ख ॥--उदान, पृ० १२ ३. अहिंसा परमो धर्मः, सर्वप्राणभृतां वरः । ___ तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्यान्मानुषः क्वचित् ।।-महाभारत, प्रादि पर्व ११:१३ ४. प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।-मनुस्मृति ५. न हिंस्यात् सर्वभूतानि, मैत्रायणगतश्चरेत् ।। नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित ।।--महाभारत, शान्ति पर्व, २७८1५ ६. प्राणा यथात्मनोऽभीष्टाः भतानामपि वै तथा। प्रात्मौपम्येन गन्तव्यं बुद्धिमद्भिर्महात्मभिः ।। -महाभारत-अनुशासन पर्व; ११५।१६ ७. नहि प्राणात् प्रियतर लोके किञ्चन विद्यते । ___ तस्माद् दयां नरः कुर्यात् ययात्मनि तथा परे ।।-महाभारत, अनुशासन पर्व, ११६।८ ८. अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः । __ अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुमः ।।-महाभारत, अनुशासन पर्व, ११६।१३ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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