Book Title: Jiv aur Panch Parmeshthi ka Swarup
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ जीव का स्वरूप (८) प्र... उक्त लक्षण तो अतीन्द्रिय-इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकने वाला है। फिर उसके द्वारा जीवों की पहिचान कैसे हो सकती है? उ.-निश्चय-दृष्टि से जीव अतीन्द्रिय हैं इसलिये उनका लक्षण अतीन्द्रिय होना ही चाहिए, क्योंकि लक्षण लक्ष्य से भिन्न नहीं होता। जब लक्ष्य अर्थात् जीव इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते, तब इनका लक्षण इन्द्रियों से न जाना जा सके, यह स्वाभाविक ही है। (६) प्र. - जीव तो आँख आदि इन्द्रियों से जाने जा सकते हैं। मनुष्य, पशु, पक्षी कीड़े आदि जीवों को देखकर व छकर हम जान सकते हैं कि यह कोई जीवधारी है । तथा किसी की आकृति आदि देखकर या भाषा सुनकर हम यह भी जान सकते हैं कि अमुक जीव सुखी, दुःखी, मूढ़, विद्वान् , प्रसन्न या नाराज है। फिर जीव अतीन्द्रिय कैसे ? उ०---शुद्ध रूप अर्थात् स्वभाव की अपेक्षा से जीव अतीन्द्रिय है। अशुद्ध रूप अर्थात् विभाव की अपेक्षा से वह इन्द्रियगोचर भी है। अमूर्तत्व- रूप, रस आदि का अभाव या चेतनाशक्ति, यह जीव का स्वभाव है, और भाषा, आकृति, सुख, दुःख, राग, द्वेष आदि जीव के विभाव अर्थात् कर्मजन्य पर्याय हैं। स्वभाव पुद्गल-निरपेक्ष होने के कारण अतीन्द्रिय है और विभाव, पुद्गल-सापेक्ष होने के कारण इन्द्रियग्राह्य हैं। इसलिये स्वाभाविक लक्षण की अपेक्षा से जीव को अतीन्द्रिय समझना चादिए । (१०) प्र. ~~ अगर विभाव का संबन्ध जीव से है तो उसको लेकर भी जीव का लक्षण किया जाना चाहिए ? उ.-किया ही है । पर वह लक्षण सब जीवों का नहीं होगा, सिर्फ संसारी जीवों का होगा । जैसे जिनमें सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि भाव हों या जो कर्म के कर्ता और कर्म-फल के भोक्ता और शरीरधारी हों वे जीव हैं। (११)प्र०—उक्त दोनों लक्षणों को स्पष्टतापूर्वक समझाइये। उ.-प्रथम लक्षण स्वभावस्पर्शी है, इसलिए उसको निश्चय नय की अपेक्षा से तथा पूर्ण व स्थायी समझना चाहिये। दूसरा लक्षण विभावस्पशी है, इसलिए १ "यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संस्मर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥" अर्थात् ---जो कर्मों का करनेवाला है, उनके फल का भोगने वाला है, संसार में भ्रमण करता है और मोक्ष को भी पा सकता है, वही जीव है । उसका अन्य लक्षण नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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