Book Title: Jiv aur Panch Parmeshthi ka Swarup Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 9
________________ ५३० जैन धर्म और दर्शन प्रातिहार्यों' की रचना करते हैं। यह सब अरिहन्त के परम योग की विभूति है । (२६: अरिहन्त के निकट देवों का आना, उनके द्वारा समवसरण का रचा जाना, जन्म-शत्रु जन्तुओं का आपस में बैर-विरोध त्याग कर समवसरण में उपस्थित होना, चौंतीस अतिशयों का होना, इत्यादि जो अरिहन्त की विभूति कही जाती है, उस पर यकायक विश्वास कैसे करना ? ऐसा मानने में क्या युक्ति है ? - उ..--अपने को जो बातें असम्भव सी मालूम होती हैं वे परमयोगियों के लिए साधारण हैं। एक जंगली भील को चक्रवती की सम्पत्ति का थोड़ा भी ख्याल नहीं पा सकता। हमारी और योगियों की योग्यता में ही बड़ा फर्क है । हम विषय के दास, लालच के पुतले और अस्थिरता के केन्द्र हैं। इसके विपरीत योगियों के सामने विषयों का आकर्षण कोई चीज नहीं; लालच उनको छता तक नहीं; वे स्थिरता में सुमेरु के समान होते हैं। हम थोड़ी देर के लिए भी मन को सर्वथा स्थिर नहीं रख सकते; किसी के कठोर वाक्य को सुन कर मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं; मामूली चीज गुम हो जाने पर हमारे प्राण निकलने लग जाते हैं; स्वार्थान्धता से औरों की कौन कहे भाई और पिता तक भी हमारे लिये शत्रु बन जाते हैं। परम योगी इन सब दोषों से सर्वथा अलग होते हैं। जब उनको आन्तरिक दशा इतनी उच्च हो तब उक्त प्रकार की लोकोत्तर स्थिति होने में कोई अचरज नहीं । साधारण योगसमाधि करने वाले महात्माओं की और उच्च चरित्र वाले साधारण लोगों को भी महिमा जितनी देखी जाती है उस पर विचार करने से अरिहन्त जैसे परम योगी की लोकोत्तर विभूति में संदेह नहीं रहता। (२७) प्र०-व्यवहार (बाह्य ) तथा निश्चय ( श्राभ्यन्तर ) दोनों दृष्टि से अरिहन्त और सिद्ध का स्वरूप किस-किस प्रकार का है ? 30-उक्त दोनों दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। उनके लिये जो निश्चय है वही व्यवहार है, क्योंकि सिद्ध अवस्था में निश्चय व्यवहार की एकता हो जाती है। पर अरिहन्त के संबन्ध में यह बात नहीं है। अरिहन्त सशरीर होते हैं इसलिए उनका व्यावहारिक स्वरूप तो बाह्य विभूतियों से संबन्ध रखता है और नैश्चयिक स्वरूप अान्तरिक शक्तियों के विकास से । इसलिए निश्चय दृष्टि से अरिहन्त और सिद्ध का स्वरूप समान समझना चाहिए। (२८ प्र०-- उक्त दोनों दृष्टि से प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु का स्वरूप किस-किस प्रकार का है ? १ 'अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।।' २ देखो-वीतरागस्तोत्र' एवं पातञ्जलयोगसूत्र का विभूतिपाद ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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