Book Title: Jin Pratima Ke Vishay Me Shiksha Author(s): Mehulprabhsagar Publisher: Mehulprabhsagar View full book textPage 1
________________ । K लक्ष्मीवल्लभोपाध्यायजी रचित जिनप्रतिमा के विषय में सम्यग्दृष्टी को शिक्षा सज्झाय प्राचीन सहित्य संपादक: मणिगुरु चरणरज मुनि मेहुलप्रभसागर कृति परिचय सकती जबकि भाव से जिनबिंब को वंदना करने पर भव उपाध्याय प्रवर श्री लक्ष्मीवल्लभजी महाराज भव के पाप दूर हो जाते हैं। द्वारा मरुगुर्जर भाषा में निबद्ध सत्ताइस गाथा की आठवीं गाथा में जिनराज का नाम स्मरण करने से मननीय रचना है। लगभग सवा तीनसौ वर्ष प्राचीन जीवा निर्मल होती है और जिन प्रतिमा के दर्शन करने से व अद्यपर्यन्त प्रायः अप्रकाशित इस लघु कृति में काया निर्मल होती है। सम्यग्दृष्टी श्रावक को उपदेश देते हुए जिनप्रतिमा नवमी गाथा में साधु सर्वविरति धारक होने से बीस की महिमा, दर्शन से भाव शुद्धि आदि आगम की विश्वा दया पालता है जबकि श्रावक देशविरति धारक साक्षी देते हुए बताया गया होने से सवा विश्वा ही दया है। ढुंढक मत के लोगों को पालन कर सकता है इस सदबोध देने हेतु प्रस्तुत कृति तरह साधु धर्म और श्रावक की रचना हुई हो ऐसा प्रतीत धर्म में मेरु पर्वत और सरसों होता है। कृति का संक्षिप्त जितना फर्क बताया गया है। सार इस प्रकार है बारहवीं गाथा में आदिम गाथाओं में श्रावक को चाहिए कि श्रीजिनराज ने भवसमुद्र से सम्यक्त्व प्राप्ति हेतु जिनबिंब तिरने के लिये जिनप्रतिमा की पूजा और मुनि सेवा करें। को जहाज के समान बताकर तेरहवीं गाथा में उपदेश दिया है कि हे पौषधोपवास व्रत की सुविचारी प्राणी! मन से आराधना पर्व दिनों में करना शंकारहित होकर सुनो और कहा है, आवश्यकसमकितधारी बनो। प्रतिक्रमण दोनों समय करना तीसरी गाथा में कहा है, अवसर मिलने पर जिनके नाम स्मरण और जाप सामायिक करना कहा है पूर्वक हम सभी जीवन जी और प्रतिदिन भोजन करने रहे हैं एवं जिनकी आज्ञा से पूर्व जिनराज और धारण करते हैं उनकी प्रतिमा मुनिराज के दर्शन करना को अप्रमाणित करने पर कहा है। समस्त क्रियाएं भी स्वतः चौदहवीं गाथा में अप्रमाणित हो जाती है। घर-कृषि-व्यापार में आरंभ ____पांचवी गाथा में संपूर्ण हिंसा का त्याग होने से कहा गया है परंतु जिन पूजा करने में जिनभक्ति कही गई साधु को भावपूजा करना कहा है जबकि श्रावक को है। द्रव्य भाव रूप दोनों पूजा करने का विधान किया पंद्रहवीं गाथा में दान और पूजा से श्रावक सुखी गया है। होता है। सातवीं गाथा में धर्म के चार प्रकार में से सोलहवीं गाथा में जो अपनी मति-कल्पना से जिन दान-शील-तप की आराधना नितप्रति नहीं हो मूर्ति को अमान्य करते हैं उन्हें मिथ्यात्व का समह कहना योग्य है। जहाज मन्दिर • फरवरी - 2017 |14Page Navigation
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