Book Title: Jambudwip Pragnapati
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 11
________________ 294 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क चक्रवर्ती की अवगाहन होती है, उस चक्रवर्ती के अंगुल का यह प्रमाण है। चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्ररत्न, छत्ररत्न, दण्डरत्न और असिरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती के श्रीधर में चर्मरत्न, मणिरत्न और कामिणीरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती की राजधानी विनीता में सेनापति, गृहपति, वर्द्धक और पुरोहित ये चार पुरुषरत्न होते हैं। वैतादयगिरि की उपत्यका में अश्व और हस्ती रत्न उत्पन्न होते हैं। उत्तरदिशा की विद्याधर श्रेणी में स्त्रीरत्न उत्पन्न होता है।" ६३ ! गंगा महानदी - सम्राट भरत षट्खण्ड पर विजय - वैजयन्ती फहराने के लिये विनीता से प्रस्थित होते हैं और गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होते हुए पूर्व दिशा में मागध दिशा की ओर चलते हैं। गंगा भारतवर्ष की बड़ी नदी है । स्कन्धपुराण, अमरकोश", आदि में गंगा को देवताओं की नदी कहा है जैनसाहित्य में गंगा को देवाधिष्ठित नदी माना है। स्थानांग, समवायांग", जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निशीथ, और बृहत्कल्प", में गंगा को एक महानदी के रूप में चित्रित किया गया है। स्थानांग, निशीथ और बृहत्कल्प में गंगा को महार्णव भी लिखा है। आचार्य अभयदेव के स्थानांगवृत्ति में महार्णव शब्द को उपमावाचक मानकर उसका अर्थ किया है कि विशाल जलराशि के कारण वह विराट् समुद्र की तरह थी । पुराणकाल में भी गंगा को समुद्ररूपिणी कहा है। नवनिधियाँ- - सम्राट भरत के पास चौदह रत्नों के साथ ही नवनिधियाँ भी थीं, जिनसे उन्हें मनोवांछित वस्तुएँ प्राप्त होती थीं। निधि का अर्थ खजाना है। भरत महाराज को ये नवनिधियां, जहाँ गंगा महानदी समुद्र में मिलती है, वहाँ पर प्राप्त हुई। आचार्य अभयदेव के अनुसार चक्रवर्ती को अपने राज्य के लिये उपयोगी सभी वस्तुओं की प्राप्ति इन नौ निधियों से होती है। इसलिये इन्हें नवनिधान के रूप में गिना है। वे नवनिधियाँ इस प्रकार है--- १. नैसर्पनिधि २. पांडुकनिधि ३. पिंगलनिधि ४ सर्वरत्ननिधि ५ महापद्मनिधि ६. कालनिधि ७. महाकालनिधि ८. माणवकनिधि ९ शंखनिधि । ७६ 93 ७९ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णन है कि भरत आदर्शघर में जाते हैं। वहाँ अपने दिव्य रूप को निहारते हैं। शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त हो गया। उन्होंने केवलज्ञान / केवलदर्शन होने के पश्चात् सभी वस्त्राभूषणों को हटाया और स्वयं पंचमुष्टि लोच कर श्रमण बने । परन्तु आवश्यक नियुक्ति" आदि में यह वर्णन दूसरे रूप में प्राप्त है। एक बार भरत आदर्शभवन में गए। उस समय उनकी अंगुली से अंगूठी नीचे गिर पड़ी। अंगूठी रहित अंगुली शोभाहीन प्रतीत हुई। वे सोचने लगे कि अचेतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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