Book Title: Jambudwip Pragnapati
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 15
________________ 298 जिनवाणी- जैनागम- साहित्य विशेषाङ्क भूगोल को भी नहीं जान सकता। आज कहीं पर अतिवृष्टि का प्रकोप है, कहीं पर अल्पवृष्टि है, कहीं पर अनावृष्टि है, कहीं पर भूकम्प आ रहे हैं तो कहीं पर समुद्री तूफान और कहीं पर धरती लावा उगल रही है, कहीं दुर्घटनाएँ है। इन सभी का मूल कारण क्या है, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। केवल इन्द्रियगम्य ज्ञान से इन प्रश्नों का समाधान नहीं हो सकता । इन प्रश्नों का समाधान होता है— महामनीषियों के चिन्तन से, जो हमें धरोहर के रूप में प्राप्त है। जिस पर इन्द्रियगम्य ज्ञान ससीम होने से असीम संबंधी प्रश्नों का समाधान उसके पास नहीं है। इन्द्रियगम्य ज्ञान विश्वसनीय इसलिये माना जाता है कि वह हमें साफ-साफ दिखलाई देता है । आध्यात्मिक ज्ञान असीम होने के कारण उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये आत्मिक क्षमता का पूर्ण विकास करना होता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का वर्णन इस दृष्टि से भी बहुत ही उपयोगी है I संदर्भ १. बृहत्कल्पभाष्य १.३२७५ - ८९ २. (क) महाभारत वनपर्व २५४ (ख) महावस्तु III, १७२ (ग) दिव्यावदान पृ. ४२४ ३. सुरुनि जातक (सं.४८९) भाग ४, ५२१ ५२२ ४. जातक (सं. ४०६) भाग ४, पृष्ठ २७ ५. (क) लाहा, ज्यॉग्रेफी ऑव अर्ली बुद्धिज्म, पृ. ३१ (ख) कनिंघम, ऐंश्येंट ज्यॉग्रेफी ऑव इंडिया, एस. एन. मजुमदार संस्करण पृ. ७१८ (ग) कर्निघम, आयलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट XVI. ३४ ६. भगवतीसूत्र ११ /१०/८ = 19. खरकांडे किंसडिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरीसलिए पण्णत्ते । जीवाजीवाभिगम सूत्र ३/१/७४ ८. मध्ये स्याज्झल्लरीनिभः । ज्ञानार्णव ३३/८ ९. मध्येतो झल्लरीनिभः । - त्रिषष्टिशलाका पु. च. २/ ३ / ४७९ १०. एतावान्मध्यलोकः स्यादाकृत्या झल्लरीनिभः । लोकप्रकाश १२/४५ ११. आराधनासमुत्य - ५८ १२. आदिपुराण - ४ /४१ १३. स्थालमित्र तिर्यग्लोकम् । – प्रशमरति, २११ १४. घनोदहितलए – बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए। - जीवाजीबाभिगम ३ / १ / ७६ १५. मज्झिमलोयायारो उब्भिय-मुरअंद्धसारिच्छो । -तिलोयपण्णत्ति १ / १३७ १६. जम्बुद्दीव्रत्ति १/२० १७. तुलसीप्रज्ञा, लाडनूँ, अप्रैल-जून १९७५, पृ. १०६, ले. युवाचार्य महाप्रज्ञ १८. मज्झिमं पुण झल्लरी । - स्थानांग ७ / ४२ 3. Research Article- A criticism upon modern views of our earth by Sri Gyan Chand Jain (Appeared in Pt. Sri Kailash Chandra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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