Book Title: Jaini kaun ho Sakta Hai Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 3
________________ 'पूर्णभद्र' और 'मानभद्र' नाम के दो वैश्य भाइयों । के संदेह अथवा भ्रम का और भी अच्छी तरह निरसन ने एक चांडाल को श्रावक के व्रत ग्रहण कराए थे और | हो सके। उन व्रतों के कारण वह चांडाल मरकर सोलहवें स्वर्ग में | (१) 'पूजासार' के श्लोक नं. १६ में जिनेन्द्रदेव बड़ी ऋद्धि का धारक देव हुआ था, जिसकी कथा पुण्यास्रव की पूजा करनेवाले के दो भेद वर्णन किये हैं- एक नित्य कथाकोश में पाई जाती है। पूजन करनेवाला, जिसको 'पूजक' कहते हैं और दूसरा 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि, गंधमादन पर्वत पर | प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको ‘पूजकाचार्य' कहते एक 'परवर्तक' नाम के भील को श्रीधर आदिक दो चारण हैं। इसके पश्चात् दो श्लोक में आद्य (प्रथम) भेद 'पूजक' मुनियों ने श्रावक के व्रत दिये। इसीप्रकार म्लेच्छों के जैनधर्म का स्वरूप दिया है और उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा धारण करने के संबंध में भी बहुत सी कथाएँ विद्यमान शुद्र इन चारों ही वर्गों के मनुष्यों को पूजा करने का हैं, जबकि जैनी चक्रवर्ती राजाओं ने तो म्लेच्छों की कन्याओं | अधिकारी ठहराया है। यथा:से विवाह तक किया है। ऐसे विवाहों से उत्पन्न हुई सन्तान ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूदो वाऽऽद्यःसुशीलवान्। मुनि-दीक्षा ले सकती थी, इतना ही नहीं किंतु म्लेच्छ देशों दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः॥१७॥ से आए हुए म्लेच्छ तक भी मुनिदीक्षा के अधिकारी ठहराये (२) इसीप्रकार 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' के ९वें गये हैं। अधिकार के श्लोक नं. १४२ में श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा श्रीनेमिनाथ के चचा वसुदेवजी ने भी एक म्लेच्छ | करने वाले के उपर्युक्त दोनों भेदों का कथन करने के राजा की पुत्री से, जिसका नाम जरा था, विवाह किया था, | अनंतर ही एक श्लोक में- 'पूजक' के स्वरूप कथन में और उससे 'जरत्कुमार' उत्पन्न हुआ था, जो जैनधर्म का ब्राह्मणादिक चारों वर्गों के मनुष्यों को पूजा करने का बड़ा भारी श्रद्धानी था और जिसने अंत में जैनधर्म की | अधिकारी बतलाया है। वह श्लोक यह हैमुनिदीक्षा धारण की थी। यह कथा भी हरिवंशपुराण में ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलव्रतान्वितः। लिखी है। और इसी पुराण में, जहाँ पर श्रीमहावीर स्वामी सत्यशौचदृढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥१४३॥ के समवसरण का वर्णन है वहाँ पर यह भी लिखा है कि और इसी ९वें अधिकार के श्लोक नं. २२५ में समवसरण में जब श्रीमहावीर स्वामी ने मुनिधर्म और | ब्राह्मणों के पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना, दान श्रावकधर्म का उपदेश दिया तो उसको सुनकर 'बहुत से | देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करके उससे अगले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि हो गये और चारों ही श्लोक में "यजनाध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः" इस वर्ण के स्त्री-पुरुषों ने श्रावक के बारह व्रत धारण किये। वचन से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के पूजन करना, पढ़ना इतना ही क्यों? उनकी पवित्र वाणी का यहाँ तक प्रभाव | और दान देना, ऐसे तीन कर्म वर्णन किये हैं। पड़ा कि कुछ जानवरों ने भी अपनी शक्ति के अनुसार | इन दोनों शास्त्रों के प्रमाणों से भली-भांति प्रकट श्रावक के व्रत धारण किये। इससे भली-भांति प्रकट है | है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्गों के मनुष्य कि, प्रत्येक मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव जैनधर्म | जैनधर्म को धारण करके जैनी हो सकते हैं। तब ही तो को धारण कर सकता है। इसलिये जैनधर्म सबको बतलाना वे श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा करने के अधिकारी वर्णन किये चाहिये। गये हैं। इन सब उल्लेखों पर से, यद्यपि प्रत्येक मनुष्य खुशी (३) 'सागारधर्मामृत' में पं. आशाधर जी ने लिखा से यह नतीजा निकाल सकता है कि, जैनधर्म आज-कल | है कि:के जैनियों की खास मीरास नहीं है, उस पर मनुष्य क्या, शूद्रोप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः।। जीवमात्र को पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है और प्रत्येक मनुष्य जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥ अपनी शक्ति अथवा सामर्थ्य के अनुसार उसको धारण (अ.२ श्लोक २२) और पालन कर सकता है, फिर भी यहाँ पर कुछ थोड़े अर्थात्- आसन और बर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, से प्रमाण और उपस्थित किये जाते हैं जिससे इस विषय | मांस और मंदिरा आदि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र 14 अगस्त 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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