Book Title: Jaini kaun ho Sakta Hai
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 2
________________ और शुभ कर्म का उदय आ जाने पर पशुओं में भी मनुष्यता आ जाती है और वे मनुष्यों के समान धर्म का पालन करने लगते हैं। क्योंकि द्रव्यत्व की अपेक्षा सब जीव, चाहे वे किसी भी पर्याय में क्यों न हों, आपस में बराबर हैं। यही हाथी का जीव, जैनधर्म के प्रसाद से, इस पशुपर्याय को छोड़कर बारहवें स्वर्ग में देव हुआ और फिर उन्नति के सोपान पर चढ़ता चढ़ता कुछ ही जन्म लेने के पश्चात् पूज्य तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ' हुआ था । 4 इसीतरह और बहुत से पशुओं ने जैनधर्म को धारण करके अपने आत्मा का विकास और कल्याण किया है जब पशुओं तक ने जैनधर्म को धारण किया है, तब फिर मनुष्यों का तो कहना ही क्या? वे तो सर्व प्रकार से इसके योग्य और दूसरे जीवों को इस धर्म में लगाने वाले ठहरे सच पूछा जाय तो किसी भी देश, जाति या वर्ण के मनुष्य को इस धर्म के धारण करने की कोई मनाही (निषेध) नहीं है। प्रत्येक मनुष्य खुशी से जैनधर्म को धारण कर सकता है। इसी से सोमदेवसूरि ने कहा है कि: "मनोवाक्कायधर्मा मताः सर्वेऽपिजन्तवः ।" अर्थात् मन, वचन, काय से किये जाने वाले धर्म का अनुष्ठान करने के लिये सभी जीव अधिकारी हैं। जैन - शास्त्रों तथा इतिहास ग्रंथों के देखने से भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि, प्रायः सभी जातियों के मनुष्य हमेशा से इस पवित्र जैनधर्म को धारण करते आए हैं और उन्होंने बड़ी भक्ति तथा भाव के साथ इसका पालन किया है। देखिये, क्षत्रिय लोग पहले अधिकतर जैनधर्म का ही पालन करते थे। इस धर्म से उनको विशेष अनुराग और प्रीति थी। वे जगत का और अपनी आत्मा का कल्याण करनेवाला इसी धर्म को समझते थे हजारों राजा ऐसे हो चुके हैं जो जैनी थे अथवा जिन्होंने जैनधर्म की दीक्षा धारण की थी। खासकर, हमारे जितने तीर्थंकर हुए हैं वे सब ही क्षत्रिय थे। इस समय भी जैनियों में बहुत से जैनी ऐसे हैं जो क्षत्रियों की सन्तान में से हैं परंतु उन्होंने क्षत्रियों का कर्म छोड़कर वैश्य का कर्म अङ्गीकार कर लिया है, इसलिये वैश्य कहलाते हैं। इसीप्रकार ब्राह्मण लोग भी पहले जैनधर्मको पालन करते थे और इस समय भी कहीं-कहीं सैकड़ों ब्राह्मण जैनी पाये जाते हैं जिससमय भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने क्षत्रियों आदि की परीक्षा Jain Education International लेकर जिनको अधिक धर्मात्मा पाया उनका एक ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया था उस समय तो ब्राह्मण लोग गृहस्थ जैनियों के पूज्य समझे जाते थे और बहुत काल तक बराबर पूज्य बने रहे। परंतु पीछे से जब वे स्वच्छंद होकर अपने जैनधर्म-कर्म में शिथिल हो गये और जैनधर्म से गिर गये तब जैनियों ने आम तौर से उनका पूजना और मानना छोड़ दिया। परंतु फिर भी इस ब्राह्मण वर्ण में बराबर जैनी होते ही रहे । हमारे परम पूज्य गौतम गणधर भद्रबाहु स्वामी और पात्रकेसरी आदिक बहुत से आचार्य ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने चहुँ ओर जैनधर्म का डंका बजाकर जगत् के जीवों का उपकार किया है। रहे वैश्य लोग, वे जैसे इस वक्त जैनधर्म को पालन करते हैं, वैसे ही पहले भी पालन करते थे। ऐसी ही हालत शूद्रों की है, वे भी कभी जैनधर्म को धारण करने से नहीं चूके और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक क्षुल्लक तक तो होते ही रहे हैं। इस वक्त भी जैनियों में शूद्र जैनी मौजूद हैं। बहुत से जैनी शूद्रों का कर्म (पेशा) करते हैं और शूद्र ही क्यों? हमारे पूर्वज तीर्थकरों तथा ऋषि-मुनियों ने तो चांडालों, भीलों और म्लेच्छों तक को जैनधर्म का उपदेश देकर उन्हें जैनी बताया है, और न केवल जैनधर्म का श्रद्धान ही उनके हृदयों में उत्पन्न किया है बल्कि श्रावक के व्रत भी उन से पालन कराये हैं, जिनकी सैंकड़ों कथाएँ शास्त्रों में मौजूद हैं। 1 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि, एक 'त्रिपद' नाम के धीवर (कहार) की लड़की का जिसका नाम 'पूतिगंधा' था और जिसके शरीर से दुर्गंध आती थी समाधिगुप्त मुनि ने श्रावक के व्रत दिये। वह लड़की बहुत दिनों तक आर्यिकाओं के साथ रही, अंत में सन्यास धारण करके मरी तथा सोलहवें स्वर्ग में जाकर देवी हुई और फिर वहाँ से आकर श्रीकृष्ण की पटरानी 'रुक्मिणी' हुई। चम्पापुर नगर में 'अग्निभूत' मुनि ने अपने गुरु सूर्यमित्र मुनिराज की आज्ञा से, एक चांडाल लड़की को, जो जन्म से अंधी पैदा हुई थी और जिसकी देह से इतनी दुर्गंध आती थी कि कोई उसके पास जाना नहीं चाहता था और इसीकारण वह बहुत दुखी थी, जैनधर्म का उपदेश देकर श्रावक के व्रत धारण कराये थे। इसकी कथा सुकुमालचरित्रादिक शास्त्रों में मौजूद है। यही चांडाली का जीव दो जन्म लेने के पश्चात् तीसरे जन्म में 'सुकुमाल' हुआ था। For Private & Personal Use Only अगस्त 2007 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org

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