Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनी कौन हो सकता है ?
जो जीव जैनधर्म को धारण करता है वह जैनी कहलाता है। परंतु आजकल के जैनी जैनधर्म को केवल अपनी ही पैतृक संपत्ति (मौरूसी तरका) समझ बैठे हैं और यही कारण है कि, वे जैनधर्म दूसरों को नहीं बतलाते और न किसी को जैनी बनाते हैं। शायद उन्हें इस बात का भय हो कि, कहीं दूसरे लोगों के शामिल हो जाने से इस मौरूसी तरके में अधिक भागानुभाग होकर हमारे हिस्से में बहुत ही थोड़ा सा जैनधर्म बाकी न रह जाय। परंतु यह सब उनकी बड़ी भारी भूल तथा गलती है और आज इसी भूल तथा गलती को सुधारने का यत्न किया जाता है।
-
हमारे जैनी भाई इस बात को जानते हैं और शास्त्रों में जगह-जगह हमारे परम पूज्य आचार्यों का यही उपदेश है कि, संसार में दो प्रकार की वस्तुएँ हैं एक चेतन और दूसरी अचेतन । चेतन को जीव और अचेतन को अजीव कहते हैं। जितने जीव हैं वे सब द्रव्यत्व की अपेक्षा अथवा द्रव्यदृष्टि से बराबर हैं- किसी में कुछ भेद नहीं है सबका असली स्वभाव और गुण एक ही है। परंतु अनादिकाल से जीवों के साथ कर्म-मल लगा हुआ है, जिसके कारण उनका असली स्वभाव आच्छादित है, और वे नाना प्रकार की पर्यायें धारण करते हुए नजर आते हैं। कीड़ा, मकोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, शेर, बधेरा, हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, बैल, मनुष्य, पशु, देव, और नारकी आदिक समस्त अवस्थाएँ उसी कर्म मल के परिणाम हैं, और जीव की इस अवस्था को 'विभावपरिणति' कहते हैं।
जब तक जीवों में यह विभावपरिणति बनी रहती है तब ही तक उनको 'संसारी' कहते हैं और सभी तक उनको संसार में नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमण करना होता है। परंतु जब किसी जीव की यह विभावपरिणति मिट जाती है। और उसका निजस्वभाव सर्वाङ्गरूप से अथवा पूर्णतया विकसित होता है तब वह जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है; और इसप्रकार जीव के 'संसारी' तथा 'मुक्त' ऐसे दो भेद कहे जाते हैं।
इस कथन से स्पष्ट है कि जीवों का जो असली स्वभाव है वही उनका धर्म है, और उसी धर्म को प्राप्त
12 अगस्त 2007 जिनभाषित
स्व.पं. जुगल किशोर जी मुख्तार कराने वाला जैनधर्म है अथवा दूसरे शब्दों में यों कहिये कि, जैनधर्म ही सब जीवों का निजधर्म है। इसलिये प्रत्येक जीव को जैनधर्म के धारण करने का अधिकार प्राप्त है। इसी से हमारे पूज्य तीर्थंकरों तथा ऋषि-मुनियों ने पशुपक्षियों तक को जैनधर्म का उपदेश दिया है और उनको जैनधर्म धारण कराया है, जिनके सैकड़ों ही नहीं किंतु हजारों दृष्टांत प्रथमानुयोग के शास्त्रों (कथाग्रंथों) को देखने से मालूम हो सकते हैं।
>
हमारे अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी' जब अपने इस जन्म से नौ जन्म पहले सिंह की पर्याय में थे तब उन्हें किसी वन में एक महात्मा के दर्शन करते ही जातिस्मरण हो आया था। उन्होंने उसीसमय उक्त महात्मा के उपदेश से श्रावक के बारह व्रत धारण किये, केसरी सिंह होकर भी किसी जीव को मारना और माँस खाना छोड़ दिया, और इसप्रकार जैनधर्म को पालते हुए सिंह पर्याय को छोड़कर वे पहले स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से उन्नति करते-करते अंत में जैनधर्म के प्रसाद से उन्होंने तीर्थंकर पद प्राप्त किया ।
'पार्श्वनाथपुराण' में, अरविंद मुनि के उपदेश से एक हाथी के जैनधर्म धारण करने और श्रावक के व्रत पालन करने के संबंध में इसप्रकार लिखा है:
अब हाथी संजम साधै। त्रस जीव न भूल विराधै ॥ समभाव छिपा उर आनै । अरि मित्र बराबर जानै ॥ काया कसि इन्द्री दंडै। साहस धरि प्रोषध मंडै ॥ सूखे तृण पाश्व भच्छे परमर्दित मारग गच्छै । हाथीगण डोह्यो पानी। सो पीवै गजपति ज्ञानी ॥ देखे बिन पाँव न राखै। तन पानी पंक न नाखै ॥ निजशील कभी नहिं खोवै। हथिनी दिश भूल न जोवै ॥ उपसर्ग सह अति भारी दुर्ध्यान तजै दुखकारी ॥ अघ के भय अंग न हालै दृढ़ धीर प्रतिज्ञा पालै ॥ चिरली दुर्द्धर तप कीनो बलहीन भयो तनछीनो ॥ परमेष्ठि परमपद ध्यावै। ऐसे गज काल गमावै ॥ एकै दिन अधिक तिसाथी तब वेगवतीतट आयौ ॥ जल पीवन उद्यम कीधौ । कादोद्रह कुन्जर बीधौ ॥ निश्चय जब मरण विचारौ । संन्यास सुधी तब धारौ ॥ इससे साफ प्रगट है कि अच्छा निमित्त मिल जाने
「
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
और शुभ कर्म का उदय आ जाने पर पशुओं में भी मनुष्यता आ जाती है और वे मनुष्यों के समान धर्म का पालन करने लगते हैं। क्योंकि द्रव्यत्व की अपेक्षा सब जीव, चाहे वे किसी भी पर्याय में क्यों न हों, आपस में बराबर हैं। यही हाथी का जीव, जैनधर्म के प्रसाद से, इस पशुपर्याय को छोड़कर बारहवें स्वर्ग में देव हुआ और फिर उन्नति के सोपान पर चढ़ता चढ़ता कुछ ही जन्म लेने के पश्चात् पूज्य तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ' हुआ था ।
4
इसीतरह और बहुत से पशुओं ने जैनधर्म को धारण करके अपने आत्मा का विकास और कल्याण किया है जब पशुओं तक ने जैनधर्म को धारण किया है, तब फिर मनुष्यों का तो कहना ही क्या? वे तो सर्व प्रकार से इसके योग्य और दूसरे जीवों को इस धर्म में लगाने वाले ठहरे सच पूछा जाय तो किसी भी देश, जाति या वर्ण के मनुष्य को इस धर्म के धारण करने की कोई मनाही (निषेध) नहीं है। प्रत्येक मनुष्य खुशी से जैनधर्म को धारण कर सकता है। इसी से सोमदेवसूरि ने कहा है कि:
"मनोवाक्कायधर्मा मताः सर्वेऽपिजन्तवः ।" अर्थात् मन, वचन, काय से किये जाने वाले धर्म का अनुष्ठान करने के लिये सभी जीव अधिकारी हैं।
जैन - शास्त्रों तथा इतिहास ग्रंथों के देखने से भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि, प्रायः सभी जातियों के मनुष्य हमेशा से इस पवित्र जैनधर्म को धारण करते आए हैं और उन्होंने बड़ी भक्ति तथा भाव के साथ इसका पालन किया है।
देखिये, क्षत्रिय लोग पहले अधिकतर जैनधर्म का ही पालन करते थे। इस धर्म से उनको विशेष अनुराग और प्रीति थी। वे जगत का और अपनी आत्मा का कल्याण करनेवाला इसी धर्म को समझते थे हजारों राजा ऐसे हो चुके हैं जो जैनी थे अथवा जिन्होंने जैनधर्म की दीक्षा धारण की थी। खासकर, हमारे जितने तीर्थंकर हुए हैं वे सब ही क्षत्रिय थे। इस समय भी जैनियों में बहुत से जैनी ऐसे हैं जो क्षत्रियों की सन्तान में से हैं परंतु उन्होंने क्षत्रियों का कर्म छोड़कर वैश्य का कर्म अङ्गीकार कर लिया है, इसलिये वैश्य कहलाते हैं। इसीप्रकार ब्राह्मण लोग भी पहले जैनधर्मको पालन करते थे और इस समय भी कहीं-कहीं सैकड़ों ब्राह्मण जैनी पाये जाते हैं जिससमय भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने क्षत्रियों आदि की परीक्षा
लेकर जिनको अधिक धर्मात्मा पाया उनका एक ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया था उस समय तो ब्राह्मण लोग गृहस्थ जैनियों के पूज्य समझे जाते थे और बहुत काल तक बराबर पूज्य बने रहे। परंतु पीछे से जब वे स्वच्छंद होकर अपने जैनधर्म-कर्म में शिथिल हो गये और जैनधर्म से गिर गये तब जैनियों ने आम तौर से उनका पूजना और मानना छोड़ दिया। परंतु फिर भी इस ब्राह्मण वर्ण में बराबर जैनी होते ही रहे । हमारे परम पूज्य गौतम गणधर भद्रबाहु स्वामी और पात्रकेसरी आदिक बहुत से आचार्य ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने चहुँ ओर जैनधर्म का डंका बजाकर जगत् के जीवों का उपकार किया है। रहे वैश्य लोग, वे जैसे इस वक्त जैनधर्म को पालन करते हैं, वैसे ही पहले भी पालन करते थे। ऐसी ही हालत शूद्रों की है, वे भी कभी जैनधर्म को धारण करने से नहीं चूके और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक क्षुल्लक तक तो होते ही रहे हैं। इस वक्त भी जैनियों में शूद्र जैनी मौजूद हैं। बहुत से जैनी शूद्रों का कर्म (पेशा) करते हैं और शूद्र ही क्यों? हमारे पूर्वज तीर्थकरों तथा ऋषि-मुनियों ने तो चांडालों, भीलों और म्लेच्छों तक को जैनधर्म का उपदेश देकर उन्हें जैनी बताया है, और न केवल जैनधर्म का श्रद्धान ही उनके हृदयों में उत्पन्न किया है बल्कि श्रावक के व्रत भी उन से पालन कराये हैं, जिनकी सैंकड़ों कथाएँ शास्त्रों में मौजूद हैं।
1
'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि, एक 'त्रिपद' नाम के धीवर (कहार) की लड़की का जिसका नाम 'पूतिगंधा' था और जिसके शरीर से दुर्गंध आती थी समाधिगुप्त मुनि ने श्रावक के व्रत दिये। वह लड़की बहुत दिनों तक आर्यिकाओं के साथ रही, अंत में सन्यास धारण करके मरी तथा सोलहवें स्वर्ग में जाकर देवी हुई और फिर वहाँ से आकर श्रीकृष्ण की पटरानी 'रुक्मिणी' हुई।
चम्पापुर नगर में 'अग्निभूत' मुनि ने अपने गुरु सूर्यमित्र मुनिराज की आज्ञा से, एक चांडाल लड़की को, जो जन्म से अंधी पैदा हुई थी और जिसकी देह से इतनी दुर्गंध आती थी कि कोई उसके पास जाना नहीं चाहता था और इसीकारण वह बहुत दुखी थी, जैनधर्म का उपदेश देकर श्रावक के व्रत धारण कराये थे। इसकी कथा सुकुमालचरित्रादिक शास्त्रों में मौजूद है। यही चांडाली का जीव दो जन्म लेने के पश्चात् तीसरे जन्म में 'सुकुमाल' हुआ था।
अगस्त 2007 जिनभाषित 13
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
'पूर्णभद्र' और 'मानभद्र' नाम के दो वैश्य भाइयों । के संदेह अथवा भ्रम का और भी अच्छी तरह निरसन ने एक चांडाल को श्रावक के व्रत ग्रहण कराए थे और | हो सके। उन व्रतों के कारण वह चांडाल मरकर सोलहवें स्वर्ग में | (१) 'पूजासार' के श्लोक नं. १६ में जिनेन्द्रदेव बड़ी ऋद्धि का धारक देव हुआ था, जिसकी कथा पुण्यास्रव की पूजा करनेवाले के दो भेद वर्णन किये हैं- एक नित्य कथाकोश में पाई जाती है।
पूजन करनेवाला, जिसको 'पूजक' कहते हैं और दूसरा 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि, गंधमादन पर्वत पर | प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको ‘पूजकाचार्य' कहते एक 'परवर्तक' नाम के भील को श्रीधर आदिक दो चारण हैं। इसके पश्चात् दो श्लोक में आद्य (प्रथम) भेद 'पूजक' मुनियों ने श्रावक के व्रत दिये। इसीप्रकार म्लेच्छों के जैनधर्म का स्वरूप दिया है और उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा धारण करने के संबंध में भी बहुत सी कथाएँ विद्यमान शुद्र इन चारों ही वर्गों के मनुष्यों को पूजा करने का हैं, जबकि जैनी चक्रवर्ती राजाओं ने तो म्लेच्छों की कन्याओं | अधिकारी ठहराया है। यथा:से विवाह तक किया है। ऐसे विवाहों से उत्पन्न हुई सन्तान ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूदो वाऽऽद्यःसुशीलवान्। मुनि-दीक्षा ले सकती थी, इतना ही नहीं किंतु म्लेच्छ देशों दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः॥१७॥ से आए हुए म्लेच्छ तक भी मुनिदीक्षा के अधिकारी ठहराये (२) इसीप्रकार 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' के ९वें गये हैं।
अधिकार के श्लोक नं. १४२ में श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा श्रीनेमिनाथ के चचा वसुदेवजी ने भी एक म्लेच्छ
| करने वाले के उपर्युक्त दोनों भेदों का कथन करने के राजा की पुत्री से, जिसका नाम जरा था, विवाह किया था, | अनंतर ही एक श्लोक में- 'पूजक' के स्वरूप कथन में
और उससे 'जरत्कुमार' उत्पन्न हुआ था, जो जैनधर्म का ब्राह्मणादिक चारों वर्गों के मनुष्यों को पूजा करने का बड़ा भारी श्रद्धानी था और जिसने अंत में जैनधर्म की | अधिकारी बतलाया है। वह श्लोक यह हैमुनिदीक्षा धारण की थी। यह कथा भी हरिवंशपुराण में
ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलव्रतान्वितः। लिखी है। और इसी पुराण में, जहाँ पर श्रीमहावीर स्वामी
सत्यशौचदृढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥१४३॥ के समवसरण का वर्णन है वहाँ पर यह भी लिखा है कि
और इसी ९वें अधिकार के श्लोक नं. २२५ में समवसरण में जब श्रीमहावीर स्वामी ने मुनिधर्म और | ब्राह्मणों के पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना, दान श्रावकधर्म का उपदेश दिया तो उसको सुनकर 'बहुत से | देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करके उससे अगले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि हो गये और चारों ही श्लोक में "यजनाध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः" इस वर्ण के स्त्री-पुरुषों ने श्रावक के बारह व्रत धारण किये। वचन से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के पूजन करना, पढ़ना इतना ही क्यों? उनकी पवित्र वाणी का यहाँ तक प्रभाव | और दान देना, ऐसे तीन कर्म वर्णन किये हैं। पड़ा कि कुछ जानवरों ने भी अपनी शक्ति के अनुसार | इन दोनों शास्त्रों के प्रमाणों से भली-भांति प्रकट श्रावक के व्रत धारण किये। इससे भली-भांति प्रकट है | है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्गों के मनुष्य कि, प्रत्येक मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव जैनधर्म | जैनधर्म को धारण करके जैनी हो सकते हैं। तब ही तो को धारण कर सकता है। इसलिये जैनधर्म सबको बतलाना
वे श्रीजिनेन्द्रदेव की पूजा करने के अधिकारी वर्णन किये चाहिये।
गये हैं। इन सब उल्लेखों पर से, यद्यपि प्रत्येक मनुष्य खुशी (३) 'सागारधर्मामृत' में पं. आशाधर जी ने लिखा से यह नतीजा निकाल सकता है कि, जैनधर्म आज-कल | है कि:के जैनियों की खास मीरास नहीं है, उस पर मनुष्य क्या, शूद्रोप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः।। जीवमात्र को पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है और प्रत्येक मनुष्य
जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥ अपनी शक्ति अथवा सामर्थ्य के अनुसार उसको धारण
(अ.२ श्लोक २२) और पालन कर सकता है, फिर भी यहाँ पर कुछ थोड़े
अर्थात्- आसन और बर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, से प्रमाण और उपस्थित किये जाते हैं जिससे इस विषय | मांस और मंदिरा आदि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र 14 अगस्त 2007 जिनभाषित
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो और नित्य स्नान आदि के करने से जिसका शरीर शुद्ध । अपेक्षा से कहे गये हैं, जैनधर्म को पालन करने में इन रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णों के सदृश श्रावक | चारों वर्गों के मनुष्य परम समर्थ हैं और उसे पालन करते धर्म का पालन करने के योग्य है। क्योंकि जाति से हीन | हुए वे सब आपस में भाई-भाई के समान हैं।' आत्मा भी कालादिक लब्धि को पाकर जैनधर्म का इन सब प्रमाणों से सिद्धांत की अपेक्षा, प्रवृत्ति की अधिकारी होता है।
अपेक्षा, और शास्त्राधार की अपेक्षा सब प्रकार से यह बात इसीतरह श्रीसोमदेव आचार्य ने भी, 'नीतिवाक्यामृत' | कि, प्रत्येक मनुष्य जैनधर्म को धारण कर सकता है, के नीचे लिखे वाक्य में, उपर्युक्त तीनों शुद्धियों के होने | कितनी स्पष्ट और साफ तौर पर सिद्ध है, इसका अनुमान से शूद्रों को धर्मसाधन के योग्य बतलाया है:- हमारे पाठक स्वयं कर सकते हैं और मालूम कर सकते
"आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीर शुद्धिश्च हैं कि वर्तमान जैनियों की यह कितनी भारी गलती और करोति शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान्।" बेसमझी है जो केवल अपने आपको ही जैनधर्म का मौरूसी
(४) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामि समन्तभद्राचार्य | हकदार समझ बैठे हैं। लिखते हैं कि:
अफसोस! जिनके पूज्य पुरुषों, तीर्थंकरों और ऋषिसम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्।
मुनियों आदि का तो इस धर्म के विषय में यह ख्याल देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसम्॥२८॥ और यह कोशिश थी कि कोई जीव भी इस धर्म से वंचित अर्थात्- सम्यग्दर्शन से युक्त- जैनधर्म के श्रद्धानी
न रहे- यथासाध्य प्रत्येक जीव को इस धर्म में लगाकर चांडाल पुत्र को भी गणधरादि देवों ने 'देव' कहा है- | उसका हित
उसका हित साधन करना चाहिये, उन्हीं जैनियों की आज 'आराध्य' बतलाया है- उसकी दशा उस अंगार के सदृश यह हालत है कि, वे कंजूस और कृपण की तरह जैनधर्म है जो बाह्म में भस्म से आच्छादित होने पर भी अंतरङ्ग | को छिपाते फिरते हैं। न आप इस धर्मरत्न से लाभ उठाते में तेज तथा प्रकाश को लिये हुए है और इसलिये कदापि | हैं और न दूसरों को ही लाभ उठाने देते हैं। इससे मालूम उपेक्षणीय नहीं होता।
होता है कि, आजकल के जैनी बहुत ही तंगदिल इससे चांडाल का जैनी बन सकना भली-भांति
(संकीर्णहृदय) हैं और इसी तंगदिली ने उन पर संगदिली प्रकट ही नहीं किंतु अभिमत जान पड़ता है। इसके सिवाय, |
(पाषाणहदयता) की घटा छा रक्खी है। खुदगर्जी (स्वार्थपरता) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो चौथे गुणस्थान में ही हो जाती
का उनके चारों तरफ राज्य है। यही कारण है कि वे दूसरों है, चंडाल इससे भी ऊपर जा सकता है और श्रावक के का उपकार करना नहीं चाहते और न किसी को जैनधर्म व्रत धारण कर सकता है। इसमें किसी को भी आपत्ति
का श्रद्धानी बनाने की कोई खास चेष्टा ही करते हैं। उनकी नहीं है। रविषेणाचार्य ने तो 'पद्मपुराण' में ऐसे व्रती चाण्डाल
तरफ से कोई डूबो या तिरो, उनको इससे कुछ प्रयोजन को 'ब्राह्मण' का दर्जा प्रदान किया है और लिखा है कि
नहीं। अपने भाईयों की इस अवस्था को देख कर बड़ा कोई भी जाति बुरी अथवा तिरस्कार के योग्य नहीं है- ही दःख होता है। सभी गुणधर्म की अधिकारिणी हैं। यथा:
प्यारे जैनियों! आप उन वीरपुरुषों की संतान हो, न जातिर्गर्हिता काचिद्गुणा:कल्याणकारणम्। जिन्होंने स्वार्थ-बुद्धि को कभी अपने पास तक फटकने व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥११-२०३॥ नहीं दिया, पौरुषहीनता और भीरुता का कभी स्वप्न में
(५) सोमसेन के त्रैवर्णिकाचार में भी एक पुरातन | भी जिनको दर्शन नहीं हुआ, जिनके विचार बड़े ही विशुद्ध, श्लोक निम्नप्रकार से पाया जाता है:
गंभीर तथा हृदय विस्तीर्ण थे और जो संसार भर के सच्चे विप्रक्षत्रियविट्शूद्रः प्रोक्ता: क्रियाविशेषतः।। शुभचिंतक तथा सब जीवों का हित साधन करने में ही जैनधर्म पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः॥ अपने को कृतार्थ समझने वाले थे। आप उन्हीं की (अ.७ श्लोक १४२)
वंशपरम्परा में उत्पन्न हैं जिनका सारा मनोबल, वचनबल, इसमें लिखा है कि- 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
बुद्धिबल और कायबल निरंतर परोपकार में ही लगा रहता शूद्र ये चारों वर्ण अपने-अपने नियत कर्म-विशेष की | था, धार्मिक जोश से जिनका मुखमंडल (चेहरा) सदा
- अगस्त 2007 जिनभाषित 15
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
दमकता था, जो अपनी आत्मा के समान दूसरे जीवों की रक्षा करते थे और इस संसार को समझकर निरंतर अपना तथा दूसरे जीवों का कल्याण करने में ही लगे रहते थे और ऐसे ही पूज्य पुरुषों का आप अपने आपको अनुयायी तथा उपासक भी बतलाते हैं जो ज्ञान-विज्ञान के पूर्ण स्वामी थे, जिनकी सभा में पशु-पक्षी तक भी उपदेश सुनने के लिए आते थे, जिन्होंने जैनधर्म धारण कराकर करोड़ों जीवों का उद्धार किया था और भिन्न धर्मावलंबियों पर जैनियों के अहिंसा धर्म की छाप जमाई थी इसलिए आप ही जरा विचार कीजिये कि क्या अपनी ऐसी हालत बनाना और दूसरों का उपकार करने से इस प्रकार हाथ खींच लेना अथवा जी चुराना आपके लिए उचित और योग्य है? कदापि नहीं ।
प्यारे धर्म बंधुओं हमें अपनी इस हालत पर बहुत ही लज्जित तथा शोकित होना चाहिये। हमारी इस लापरवाही (उदासीनता) और खामोशी (मौनवृत्ति) से जैनजाति को बड़ा भारी धक्का और धब्बा लग रहा है। हमने अपने पूज्य पुरुषों - ऋषिमुनियों के नाम को बट्टा लगा रखा है। यह सब हमारी स्वार्थपरता, निष्पौरुषता, संकीर्णहृदयता और विपरीत बुद्धि का परिणाम है। इसका सारा कलङ्क हमारे ही ऊपर है वास्तव में हम बड़े भारी अपराधी हैं जब हम अपनी आँखों के सामने इस बात को देख रहे हैं कि अज्ञान से अंधे प्राणी बिल्कुल बेसुध हुए मिथ्यात्वरूपी कुँए के सन्मुख जा रहे हैं और उसमें गिर रहे हैं, और फिर भी हम मौनावलम्बी हुए चुपचाप बैठे हैं- न उन बेचारों को उस कुँए से सूचित करते हैं, न कुँए में गिरने से बचाते हैं और न कुँए में गिरे हुओं को निकालने का प्रयत्न करते हैं, तो इससे अधिक और क्या अपराध हो सकता है? अब हमको इस कलङ्क और अपराध से मुक्त होने के लिए अवश्य प्रयत्नशील होना चाहिए।
सबसे प्रथम हमें अपने में से इन स्वार्थपरता आदिक दोषों को निकाल डालना चाहिए। फिर उत्साह की कटि बांधकर और परोपकार को ही अपना मुख्य धर्म संकल्प करके अपने पूज्य पुरुषों अथवा ऋषि-मुनियों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए और दूसरे जीवों पर दया करके उनको मिध्यात्वरूपी अंधकार से निकाल कर जिनवाणी के प्रकाशरूप जैनधर्म की शरण में लाना चाहिए । यही हमारा इससमय मुख्य कर्तव्य है और इसी कर्तव्य को पूरा 16 अगस्त 2007 जिनभाषित
करने से हम उपर्युक्त कलङ्क से विमुक्त हो सकते हैं। अथवा यों कहियें की अपने मस्तक पर जो कालिमा का टीका लगा हुआ है उसको दूर कर सकते हैं हमको चाहिये कि, अपने इस कर्त्तव्य का पालन करने में अब कुछ भी विलंब न करें। क्योंकि इस वक्त काल की गति जैनियों के अनुकूल है। अब वह समय नहीं रहा कि, जब अन्यायी और निष्ठुर राजा तथा बादशाहों के अन्याय और अत्याचारों के कारण जैनी अपने को जैनी कहते हुए डरते थे और अपने धर्म तथा शास्त्रों को छिपाने के लिए बाध्य होते थे। अब वह समय आ गया है कि, लोगों की प्रवृत्ति सत्यता की खोज और निष्पक्षपातता की ओर होती जा रही है। इसलिए जैनियों के लिए यह समय बड़ा ही अमूल्य है। ऐसे अवसर पर अवश्य अपने धर्मरत्न का प्रकाश सर्वसाधारण में फैलाना चाहिए। सर्वमनुष्यों पर जैनधर्म के सिद्धांत और उनका महत्त्व प्रगट करना चाहिए और उनको बतलाना चाहिए कि कैसे जैनधर्म ही सभी चीजों का कल्याण कर सकता है और उनको वास्तविक सुख की प्राप्ति करा सकता है। इससमय हमारे भाईयों को सिर्फ थोड़ी सी हिम्मत और परोपकार बुद्धि की जरूरत है। बाकी यह खूबी खुद जैनधर्म में मौजूद है कि, वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेवे परंतु दूसरों को इस धर्म से परिचय और जानकारी कराना मुख्य है और जैनियों का कर्तव्य है।
,
अतः प्यारे जैनियों! आप कुछ भी न घबराते हुए इस धर्मरत्न को हाथ में लेकर चौड़े मैदान में खड़े हो जाइये और जौहरियों से पुकार कर कहिये कि वे आकर इस रत्न की परीक्षा करें। फिर आप देखेगें की कितने धर्मजौहरी इस धर्मरत्न को देखकर मोहित होते हैं और किस पर अपना जीवन अर्पण करने के लिए उद्यमी नजर आते हैं। अभी हाल में कुछ लोगों के कानों तक इस धर्म का शुभ समाचार पहुँचा ही था कि, वे तुरंत मनवचन काय से इसके अनुयायी और भक्त बन गये हैं। इसलिए मेरा बार-बार यही कहना है कि, कोई भी मनुष्य इस पवित्र धर्म से वंचित न रक्खा जाये किसी न किसी प्रकार से प्रत्येक मनुष्य के कानों तक इस धर्म की आवाज (पुकार) पहुँच जानी चाहिए और इस बात का कभी दिल में ख्याल भी न लाना चाहिए कि अमुक मनुष्य इस धर्म को धारण करने के अयोग्य है अथवा इस धर्म का पात्र ही नहीं है क्योंकि यह धर्म प्राणी मात्र का धर्म है यदि
2
1
|
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________ कोई मनुष्य पूरी तौर पर इस धर्म का पालन नहीं कर / है। उसके लिये व्यर्थ अधिक चिंता करने अथवा कष्ट सकता तो भी थोड़ा बहुत पालन कर सकता है। कम से | उठाने की जरूरत नहीं है। अतः हमको बिल्कुल निर्भय कम यदि उसका श्रद्धान ही ठीक हो जायेगा तो उससे बहुत | होकर, साहस और धैर्य के साथ, सब मनुष्यों में जैनधर्म काम निकल जायेगा और वह फिर धीरे-धीरे यथावत् | का प्रचार करना चाहिये। सबसे पहले लोगों का श्रद्धान आचरण करने में भी समर्थ हो जायेगा। इसीलिए शायद | ठीक करना और फिर उनका आचरण सुधारना चाहिये। सोमदेव सूरि ने 'यशस्तिलक' में लिखा है कि- |जैनी बनने और बनाने के लिए इन्हीं दो बातों की खास "नवैः संदिग्धनिर्वाह विदध्याद् गणवर्धनम्।" | जरूरत है। इनके बाद समाजिक व्यवहार है, जो देश काल अर्थात्- ऐसे ऐसे नए मनुष्यों से भी अपने समाज की परिस्थितियों- आवश्यकताओं-और परस्पर प्रेममय की समूहवृद्धि करनी चाहिये जो संदिग्ध निर्वाह हैं- जिनके | सद्वर्तन आदि पर विशेष आधार रखता है। उसके लिए विषय में यह संदेह है कि वे समाज के आचार-विचार कोई एक नियम नहीं हो सकता। वह जितना ही निर्दोष, का यथेष्ट पालन कर सकेंगे। दृढ़ तथा प्रेममूलक होगा उतना ही समाज और उसके धर्म दूसरे नीति का यह वाक्य है कि 'अयोग्यः पुरुषो | स्थिति लिये उपयोगी तथा हितकारी होगा। नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः' अर्थात् कोई भी मनुष्य स्वभाव | सन्दर्भ से अयोग्य नहीं है। परंतु किसी मनुष्य को योग्यता की | 1. जैसा कि 'लब्धिसार' की टीका के निन्न अंश से प्रकट हैओर लगाना या किसी की योग्यता से काम लेना यही कठिन "म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथंभवतीति कार्य है और इसी पर दूसरे मनुष्य की योग्यता की परीक्षा | नाशंकितव्यं / दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां निर्भर है। इसलिये यदि हम किसी मनुष्य को जैनधर्म धारण | म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जातवैवाहिकसंबंधानां न करावें या किसी मनुष्य को जैनधर्म का श्रद्धानी न बना | संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् / अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषत्पन्नस्य सकें, तो समझना चाहिये कि यह हमारी ही अयोग्यता है। मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथा जातीयकानां दीक्षार्हत्वे प्रतिषेधाभावात्। " इसमें उस मनुष्य का कोई दोष नहीं है और न इसमें जैनधर्म | (गाथा न. 193) का ही कोई अपराध हो सकता है। इसलिये इस कच्चे 2. हरिवंशपुराण के उल्लेखों के लिये दिखो पं. दौलतरामजी विचार और बालख्याल को बिल्कुल हृदय से निकाल कर द्वारा अनुवादित भाषा हरिवंशपुराण अथवा जिनसेनाचार्य कृत फेंक देना चाहिये कि, अमुक मनुष्य को तो जैनधर्म मूलग्रंथ। बतलाया जावे और अमुक को नहीं। प्रत्येक मनुष्य को | 3. इस पद्यसे पहले स्वोपज्ञ टीका में यह प्रतिज्ञावाक्य भी दिया जैनधर्म बतलाना चाहिये और जैनधर्म श्रद्धानी बनाना चाहिये। क्योंकि यह धर्म प्राणी मात्र का धर्म है- किसी "अथ शूद्रस्याप्याहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मखास जाति या देश से संबद्ध (बँधा हुआ) नहीं है। | क्रियाकारित्वं यथोचितमनुमन्यमानः प्राह-" यहाँ पर सब प्रकार के मनुष्यों को जैनधर्म का | | 4. आदिपुराण में तो म्लेच्छों तक को कुलशुद्धि आदि के द्वारा श्रद्धानी अथवा जैनी बनाने से हमारे किसी भी भाई को - अपने बना लेने की- उन्हें क्रमशः अपनी जाति में शामिल यह समझकर भयभीत न होना चाहिये कि, ऐसा होने से / कर लेने की- व्यवस्था की गई है। जैसा उसके निम्न वाक्य सबका खाना पीना एकदम एक हो जावेगा। खाना-पीना से प्रकट है स्वदेशे ऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः। और बात है- वह अधिकांश में अपने ऐच्छिक व्यवहार कुलशुद्धिप्रदानाद्यैः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः। पर निर्भर है, लाजिमी नहीं-और धर्म दूसरी वस्तु है। दूसरे (पर्व 42 वी) लोगों को जैनधर्म में दीक्षित करने के लिये हमें प्रायः उसी 5. कुछ वर्ष पहले लिखे लेख की संशोधित, परिवर्तित और सनातन मार्ग पर चलना होगा जिस पर हमारे पूज्य पूर्वज परिवर्द्धित नई आवृत्ति, जो जैनमित्रमण्डल देहली के अनुरोध और आचार्य महानुभाव चलते आए हैं और जिसका उल्लेख पर तैयार की गई। आदिपुराणादि आर्ष ग्रन्थों में पाया जाता है। हमारे लिये 'अनेकान्त' वर्ष १/किरण 5 से साभार पहले ही से सब प्रकार की सुगमताओं का मार्ग खुला हुआ - अगस्त 2007 जिनभाषित 17