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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] करके वे आपस में खूब वादविवाद करने लगीं ओर मालूम हुआ कि देवताओं को तो वे इस बार अच्छी तरह बता कर ही छोड़ेंगी।
पर असहयोग सामयिक नीति भले हो जाय, कहीं शाश्वत रूप में वह टिक सकता है ? टिकाऊ सत्य तो परस्पर का लेन-देन ही है । फूट तो अन्त में खुद ही फटती है, और दुनिया में बिना मिले तो अन्त तक कुछ भी काम नहीं चलता।
किन्तु मिला कैसे जाय ? मिलने में तो मान खंडित होता है ! सिर ऊँचा तानकर अपनेपन में सतर खड़े होने से तो मिलाप नहीं होता । कुछ नमो, भुको, तब मेल होता है।
सो जब असहयोग ठाना तब इच्छा होने पर भी मिलना सहज न दीखा। ___ उस समय इन्द्र ने मेल-मिलाप की कोशिश की, जिस कोशिश से मेल-मिलाप तो न हुआ, फिर भी यह पता चला कि ब्रह्माजी
आकर अवश्य कुछ समझौता करा सकते हैं। उनके हाथ में तो सब कुछ है न । वह स्वर्ग के विधि-विधान में कुछ संशोधन करना चाहें तो भी कर सकते हैं । इसलिए, उनके पास चला जाय ।
निर्णय के लिए उलझन यह उपस्थित थी कि देवियाँ तो सतीत्व चाहती थीं और देवताओं को विवाह की आवश्यकता समझ न पड़ती थी। सच यह है कि देवता लोग स्नेह के कारण ही देवियों को प्रजनन और सन्तति-रक्षण की झंझट में डालना नहीं चाहते थे। उनकी समझ में नहीं आता था कि इन देवियों की मति कैसी है कि और बवाल सिर पर लेना चाहती हैं ! स्वर्ग को स्वर्गही नहीं रहने देना चाहतीं। है न उलटी मति !
और देवियों का मत था कि इन देवताओं को अपने सुखसम्भोग की चाहना है। हमें कष्ट होगा, तो हम देख लेंगी। लेकिन