Book Title: Jainagamo me Mukti marg aur Swarup Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 3
________________ 300 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 को काल अनन्त है / अतीत भी और अनागत भी / आत्माएँ अनन्त हैं / अनन्त अतीत में भी यह विश्व आत्माओं से रिक्त नहीं हुआ तो अनन्त भविष्य में भी यह रिक्त कैसे होगा। जिस प्रकार भविष्य का एक क्षण वर्तमान बनकर अतीत बन जाता है, पर भविष्य ज्यों का त्यों अनन्त बना हुआ रहता है / वह कभी समाप्त नहीं होता। उसी प्रकार विश्वात्माएँ भी अनन्त हैं, अतः यह विश्व कभी रिक्त नहीं होगा। मुक्ति की जिज्ञासा कैसे जगी? अनन्तकाल से यह आत्मा भवाटवी में भटक रही है / पर इसे सर्वत्र दुःख ही दुःख प्राप्त हुआ है। सुख कहीं नहीं मिला। 'कभी इसने नरक में निरन्तर कठोर यातनाएँ भोगी हैं तो कभी तिर्यग्योनि में दारुण दुःख सहे हैं। कभी . मनुज जीवन में रुग्ण होने पर रुदन किया है तो कभी स्वर्गीय सुखों के वियोग से व्याकुल भी हुई है।' इस प्रकार अनन्त जन्म-मरण से संत्रस्त आत्मा को एकदा अनायास अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ-यह था इस आत्मा का नैसर्गिक उदय / इस उदय से आत्मा का आर्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में जन्म, स्वस्थ शरीर, स्वजन-परिजन का सुखद सम्बन्ध, अमित वैभव के साथ-साथ सद्गुरु की संगति एवं सद्धर्म-श्रवण-अभिरुचि भी उसमें जाग्रत हुई। एक दिन उसने धर्मसभा में श्रवण किया 'आत्मा ने अतीत के अनन्त जन्मों में अनन्त दुःख भोगे हैं-जब तक इस आत्मा की कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्ति नहीं हो जाती तब तक यह आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती।' इस प्रकार प्रवचन-श्रवण से अतीत की अनन्त दुखानुभूतियाँ उस आत्मा की स्मृति में साकार हो गईं, अतः उसकी अन्तश्चेतना में मुक्ति-मागों की जिज्ञासा जगी। मुक्ति का अभिप्रेतार्थ मुक्ति भाववाचक संज्ञा है-इसका वाच्यार्थ है-बन्धन आदि से छुटकारा पाने की क्रिया या भाव / आध्यात्मिक साधना में मुक्ति शब्द का अभिप्रेतार्थ है-आत्मा का कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होना / / मुक्ति के समानार्थक मोक्ष-किसी से छुटकारा प्राप्त करना / आध्यात्मिक साधना में आत्मा का कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त होना अभिप्रेत है। निर्वाण-इस शब्द का अर्थ है-समाप्ति / यहाँ अभिप्रेत अर्थ है-कर्मबन्धनों का सर्वथा समाप्त होना / बहिविहार-इसका वाच्यार्थ है-बाहर गमन करना / यहाँ इष्ट अर्थ है-जन्म-मरण रूप संसार स्थान से बाहर जाना / मुक्त होने पर पुनः संसार में आवागमन नहीं होता। सिद्धलोक-मुक्तात्मा अपना अभीष्ट सिद्ध (प्राप्त) कर लेता है अत: मुक्तात्माओं का निवास स्थान 'सिद्धलोक' कहा जाता है। आत्मवसति-मुक्तात्माओं की वसति (शाश्वत स्थिति का स्थान) 'आत्मवसति' कही जाती है / अनुत्तरगति-कर्मबन्धनों से बद्ध आत्मा नरकादि चार गतियों में आवागमन करती है और कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त आत्मा इस 'अनुत्तरगति' को प्राप्त होती है / क्योंकि आत्मा की यही अन्तिम गति है अतः यह 'अनुत्तरगति' कही जाती है / 10 प्रधानगति-बद्धात्मा चार गतियों को पुनः-पुनः प्राप्त होती है और मुक्तात्मा इस गति को प्राप्त होती है। विश्व में इस गति से अधिक प्रधान अन्य गति नहीं है, इसलिए यह 'प्रधानगति' कही गई है।११ सुगति-देवगति और मनुष्यगति भी सुगति कही गयी है किन्तु यह कथन नरक और तिर्यग् गति की अपेक्षा से किया गया है / वास्तव में मुक्तात्माओं की जो गति है, वही सुगति है / 12 WAMANIDA .. MERROD Kocop Jain Education international FOI Private Personal usePage Navigation
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