Book Title: Jainachar Ek Vivechan
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 9
________________ S लगा। उत्पादन द्वारा आवश्यकतानुरूप सामग्री सज्जन है या दुर्जन, धार्मिक है या अधार्मिक उपलब्ध होने लगी, किन्तु मनुष्य के चरित्र में जो आदि । चारित्र के अनुसार ही यह भी ज्ञान किया विकार आ गये थे, उन्हें भी दूर करना आवश्यक जा सकता है कि कौन किस का मित्र अथवा शत्रु था। इसके बिना विषमता को दूर करना और है ? इसी प्रकार चारित्र ही किसी व्यक्ति को शान्ति स्थापित करना सम्भव नहीं था। भगवान प्रतिष्ठित और उच्च भी बना सकता है और ने मानव जाति पर यह उपकार भी किया। किसी का पतन भी कर सकता है। उन्होंने मनुष्यों को अहिंसात्मक आचरण का उप- चारित्र दो प्रकार का होता है। कुछ करना 0 देश दिया और अहिंसा को ही धर्म के रूप में चारित्र के अन्तर्गत आता ही है, किन्तु साथ ही प्रतिष्ठित कर दिया । भगवान ने इस अहिंसाधर्म साथ कुछ कामों का न किया जाना भी चारित्र का के समग्रतः पालन के पक्ष में सहायक तत्त्वों- ही अंग है। अच्छे कामों का किया जाना जितना सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश महत्त्वपूर्ण है, अशुभ कार्यों का न किया जाना भी दिया । तब से अहिंसा सहित ये चार तत्त्व अर्थात्- मनुष्य की सज्जनता के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण ये पांच यम जनधर्म का मूल आचार हो गया। है । यह कहा जा सकता है कि चारित्र के दो प्रकार क्रमशः इसमें विकास होता रहा और इसके प्रचार- हैं-प्रवृत्तिमूलक चारित्र और निवृत्तिमूलक प्रसार में अन्य तीर्थंकरों का महत्त्वपूर्ण योगदान चारित्र । यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य अच्छे भी होता रहा। और बुरे दोनों ही प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति रख एक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह सकता है । इसी प्रकार उसकी निवृत्ति का सम्बन्ध का पालन जैनाचार का मूल रूप है। सभी जैन- भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों से हो धर्मानुयायी अनिवार्यतः इस आचार का पालन सकता है। आदर्श चारित्र से अनुरूप व्यक्ति को करते हैं। यह मात्र मुनिजनों के लिए नहीं । हाँ, शुभ के प्रति प्रवृत्ति और अशुभ के प्रति निवृत्ति गृहस्थों और विरक्त मुनियों द्वारा पालन किये का भाव रखना चाहिए। जाने वाले आचार में परिमाण का अन्तर हो जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, सकता है। इसी दृष्टि से यह माना जाता है कि मनुष्य की समस्त गतिविधियों के तीन ही द्वार इस निर्धारित जैनाचार का गृहस्थजन एकदेश से हैं-मन, वचन और काया । प्रवृत्ति के ये ही तीन ॥ और मुनिजन सर्वदेश से पालन करते हैं । चारित्र साधन हैं। इन्हीं साधनों से मनुष्य की शुभ प्रवृत्ति एक व्यापक पारिभाषिक शब्द है । इसके अन्तर्गत भी सम्भव है और अशुभ प्रवृत्ति भी। किसी के मनुष्य की समस्त सूक्ष्म गतिविधियाँ भी परि- प्रति ईर्ष्या रखना, किसी के अहित की कामना ₹ गणित होती हैं । मनुष्य जो कुछ उच्चारित करता करना आदि अशुभ मानसिक प्रवृत्तियाँ हैं। इसी है, यही नहीं अपितु वह जो कुछ सोचता है-वह प्रकार किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना, भी उसकी गतिविधियों में सम्मिलित होता है और कटुवचनों का उच्चारण करना आदि अशुभ ये सारी गतिविधियाँ चारित्र के अन्तर्गत आ जाती वाचिक प्रवृत्तियाँ हैं । दूसरों के लिए कष्टप्रद कार्य हैं । मन, वचन और काया की समस्त क्रियाएँ करना, हिंसापूर्ण कार्य करना, दूसरों को हानि चारित्र की परिधि में आती हैं। वस्तुतः पहुँचाना आदि अशुभ कायिक प्रवृत्तियाँ हैं । यह मनुष्य का जो चारित्र है, वही वह स्वयं है, वही सभी अशुभ प्रवृत्तियाँ त्याज्य समझी जानी चाहिये। उसका व्यक्तित्व है। चारित्र के आधार पर ही इन्हीं द्वारों-मन, वचन और काया का सदुपयोग उसका मूल्यांकन होता है कि वह भला है या बुरा, शुभ प्रवृत्तियों द्वारा किया जा सकता है । किसी के %3-ee कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jan Education International Yor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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