Book Title: Jainachar Ek Vivechan
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 8
________________ अपेक्षित शक्ति देता है और अनुकूल वातावरण साधन सामग्री प्राप्त होती रहती थी। सभी संतुष्ट तैयार करता है। ज्वलित-दुखित जगत के मध्य और परम सुखी थे। रहकर भी सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता अद्भुत परिवर्तनशील समय परिस्थितियों को सदा । शान्ति का अनुभव कर सकता है। एक सो कहाँ रखता है ? प्रकृति के भंडारों में 8 सम्यक्चारित्र अभाव आने लगा। उपभोग्य सामग्री की सुलभता चारित्र या आचरण मनुष्य की गतिविधियों में व्यवधान आना भी स्वाभाविक था । ऐसी परिका समुच्चय है। मनुष्य की ये गतिविधियाँ उचित स्थिति में मनुष्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन आया। भी होती हैं और अनुचित भी। अनुचित गति- संकट का अनुभव उसे आरम्भिक रूप से होने लगा विधियों से मनष्य स्वयं के लिए भी कष्टकर था। उसकी सन्तोष की मनोवत्ति समाप्त हा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है और समाज के लगी। आज की क्षधा मिटने मात्र से उसे सन्तोष 8 लिए संकट भी। ऐसी स्थिति में मनुष्य के आच- नहीं होता-वह तो कल की भी चिन्ता करने रण पर अंकुश होना ही चाहिये। धर्म ही ऐसे लगा। परिणामतः उसके मन में लोभ की दुष्प्रवृत्ति नियन्त्रण की क्षमता रखता है। आज जब समाज जगी । वह साधनों का संग्रह करने लगा। शक्तिमें विभिन्न स्तरीय विषमताओं का साम्राज्य है- शाली लोग अधिक संग्रह कर लेते और दुर्बलजन इसकी और भी अधिक आवश्यकता अनुभव होती साधनहीन होने लगे। और यों समाज में असमाहै । व्यक्ति स्वसुख के लिए स्वार्थवश पर-दुखकारी नता और विषमता अंकुरित होने लगी। स्थिति बन जाता है। मनुष्य में इस विकृति की और यही नहीं रही, अपितु उसने अपराधों को भी जन्म समाज में विषमता की- दोनों की उत्पत्ति एक ही दिया। साधनहीनों ने साधन-गम्पन्नों के पास से साथ हुई और समानान्तर रूप से दोनों का साथ बलपूर्वक साधनों को छीनने का प्रयत्न भी किया । साथ ही विकास भी हुआ है। जब मनुष्य का और समाज में अशान्ति व्याप्त होने लगी। यदि स्वार्थ बढ़ता है, तो विषमता भी विकसित होती है साधनहीन दुर्बल हुए तो साधनों की चोरी करने और विषमता के साथ-साथ स्वार्थ की भावना बल- लगे-इस प्रकार एक और बुराई उत्पन्न हुई। वती होती चली जाती है। इस प्रकार ये दोनों क्रमशः ये बुराइयाँ कई गुनी अधिक बढ़ती गयीं विकार परस्पर पोषक हैं । जैनधर्म के आदिकाल और समाज क्या से क्या हो गया। में कोई विषमता नहीं थी, परिणामतः मानव-जाति ऐसे अराजकता और अशान्तिपूर्ण समाज पर सर्वथा विकारशून्य, निरीह और निश्छल थी। वह नियंत्रण आवश्यक होता है । दुःखित जनों के दुःखों वर्तमान अवसर्पिणी काल के आरंभ का समय था। को दूर करना भी आवश्यक है। आवश्यकता इस आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के कुछ समय बात की थी कि भोग की प्रवृत्ति को छोड़कर मनुष्य पूर्व तक का काल बड़ा सुखमय और शान्तिपूर्ण उद्यम में प्रवृत्त हो। मनुष्य द्वारा उत्पादन करना था । तब इस 'भोग भूमि' पर सभी सुखी थे। ही समस्या का रचनात्मक समाधान था। साधनों किसी को कोई कष्ट न था। बिना श्रम किये ही के अभावों को श्रम द्वारा स्वयं मनुष्य दूर कर । सब को सभी उपभोग्य सामग्रियाँ स्वतः ही उप- सके-इस दिशा में कुशल मार्गदर्शन अपेक्षित था। लब्ध हो जाती थीं। किसी को उनके संचय का ऐसे ही समय में आदिनाथ भगवान ऋषभदेव का लोभ भी नहीं था। न कोई विपन्न था और न ही जन्म हआ था। भगवान ने कृषि, शिल्प, व्यापाकोई सम्पन्न । विषमता का लेशमात्र भी नहीं था। रादि करना सिखाया और अभाव की समस्या का प्रकृति के विपुल भण्डार से सभी को यथोचित निदान आरम्भ हुआ । व्यक्ति श्रमशील होने पर ५४४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ( 9 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E ton International FOP Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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