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परिशिष्ट
सुखकामी मनुष्य और सुख का रूप धर्माचार का मूल मन्तब्य यथार्थ सुख की 3 प्राप्ति है । यहाँ यह अपेक्षित है कि सच्चे सुख के स्वरूप को पहचाना जाय और दुःख के साथ उस की आपेक्षिक स्थिति को भी समझा जाय । जैन साहित्य में इस विषय का विषद विवेचन उपलब्ध होता है । दुःख के कारणों की खोज की गई है और उनको निर्मूल करने के उपाय भी सुझाये · गये हैं । दुःख के समाप्त हो जाने की स्थिति, सुखानुभव की प्राथमिक आवश्यकता है। जैन मान्यतायें दुःख के कारण रूप में 'कर्मबन्धन' को स्वीकारती हैं। इस बन्धन के क्षीण हो जाने पर ही वास्तविक और उत्तम सुख उपलब्ध होता है । इस विचार के समर्थन में निम्न उक्ति उल्लेखनीय है
जैनाचार : एक विवेचन
देशयामि समीचीनं धर्म-कर्म निवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे || 2 अर्थात्–“मैं कर्मबन्ध का नाश करने वाले उस सत्यधर्म का कथन करता हूँ जो प्राणियों को संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तमसुख में धरता है ।"
स्पष्ट है कि संसार में दुःख हैं । प्राणियों के अपने कर्म ही इन सांसारिक दुःखों के मूल कारण हैं और धर्म उन्हें दुःख - मुक्त कर उत्तम सुख की प्राप्ति करा सकता है। कौन सचेतन प्राणी सुख का परित्याग कर स्वेच्छा से दुःख का वरण करने को तत्पर हो सकता है ? सभी की कामना सुख के
'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' - श्री समन्तभद्र स्वामी
१
- राजेन्द्र मुनि शास्त्री,
एम० ए०
लिए ही होती है, प्रयत्न भी इसी दिशा में किये जाते हैं । यह बात अन्य है कि वे प्रयत्न उत्तमसुख के पक्ष में होते हैं अथवा नहीं और वे प्रयत्न समुचित होते हैं अथवा नहीं। यह सुख की लालसा दुःख की प्रतिक्रिया है । दुःख कदाचित् जागतिक जीवन का एक दृढ़ और कटु सत्य है । दुःख की परिधि से कोई बच नहीं पाया है । लौकिक दृष्टि से 'अभाव' दुःख का कारण है । अभाव की पूर्ति से हो सुख का आगमन भी मान लिया जाता है । अन्नाभाव के कारण क्षुधा का दुःख है और अन्नप्राप्ति पर सुखानुभव होने लगता है। किंतु दुःखित तो अभावग्रस्त पाये ही जाते हैं; सम्पन्न जन भी किसी न किसी दुःख के शिकार रहते हैं । धनाधिक्य यदि भौतिक सुख की उपलब्धि कराता है तो सन्तानाभाव अथवा अन्य किसी कारण से मानसिक संताप बना रहता है । व्याधि भी दुःख का कारण हो सकती है, व्यावसायिक ऊँच-नीच से भी चिन्ता और मानसिक क्लेश संभव है । सार यह कि सामान्यतः दुःख इस जागतिक जीवन का एक अनिवार्य अंग है और मनुष्य का सुखकामी होना भी एक शाश्वत सत्य है ।
और
प्रश्न यह है कि इस दुःख से छुटकारा पाने सुख प्राप्त करने के लिए कारगर उपाय क्या है ? भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये ४ साधन सुखार्थ सुझाये गये हैं । मोक्ष पारलौकिक सुख का साधन है । इहलोक के सुखों के लिये प्रथम ३ साधनों का विधान है । इन तीन
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साधनों में आदिस्थान धर्म को ही प्रदान किया यह तो चर्चा हुई लौकिक सुख की। किन्तु ।
गया है। वस्तुतः धर्म ही सुख प्रदान करने वाला वास्तविकता यह है कि ये लौकिक सुख वास्तव में SAI प्रमुख और समर्थ साधन है। शेष अर्थ और काम सुख होते ही नहीं। ये तो सुखों की छाया मात्र । तो गौण स्थान रखते हैं और इन दोनों साधनों में हैं। इन सुखों का अन्तिम परिणाम घोर कष्टकर
भी धर्म की संगति अनिवार्य रहती है । धर्मरहित दुःख होता है । फिर इन्हें सुख कहा ही कैसे जाय? |
अर्थ सुख नहीं, दुःखों का ही मूल कारण बनता है। यह तो मनुष्य का अज्ञान और मोह ही है जो Call सुख प्राप्त करना जीव का अनिवार्य स्वभाव है- इनमें सुख की प्रतीति कराने लगता है । वास्तव में !
इस प्रवृत्ति के अधीन होकर मनुष्य नीति-अनीति यह मनुष्य का भ्रम है और यही भ्रम उसे घोर उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना अधिकाधिक दुःखजनक तथाकथित सुखों के पीछे दौड़ने को अर्थ-संचय में लग जाता है। वैभव-विलास के विवश कर देता है। यह ध्यान देने योग्य बात है , साधनों के अम्बार लग जाते हैं, उच्च अट्टालि- कि सुख तो जीव के भीतर से ही उदित होने वाला । काओं का वह स्वामी हो जाता है। अपार धन- एक तत्त्व है और उसका आभास भी कहीं किसी धान्य और स्वण-माणिक्य से भरा-पूरा उसका बाह्य पदार्थ में नहीं हो सकता। अपने से बाहर है प्रासाद अन्यजनों के लिए ईष्या का कारण तक सख की खोज करने वाले प्राणी की स्थिति तो उस बन जाता है। उसे समाज में उचित प्रतिष्ठा भी
मृग की सी है जो अपनी नाभि में बसी कस्तूरी की प्राप्त हो जाती है। यह सब कुछ होते हुए भी
ता ह। यह सब कुछ हात हुए भी मादक गन्ध से चंचल होकर उस सुगन्धित पदार्थ अधर्म से प्राप्त धन उसके मन को अशांत रखता है। को प्राप्त करने के लिए-फिर-फिर सूघे घास' बेईमानी से व्यवसाय करके यदि धन प्राप्त किया की अवस्था में रहता है। आवश्यकता सुख के गया, तो उस धन को छिपाने की समस्या रहेगी।
स्वरूप को समझने की है । सारे भ्रम फिर दूर हो मनुष्य स्वयं को भी भीतर ही भीतर धिक्कारता
जायेंगे, भ्रान्तियाँ कट जायेगी और सुख के | रखता है कि अन्याय और अनीति के साथ ही उस पात्रों से मन मक्त टो जायगा। ने यह धन प्राप्त किया है। ऐसी स्थिति में मान- बाहरी पदार्थों में सुख का अनुभव करने वाले हैं सिक असंतोष होना ही है और बाहर से उसका जन इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सुखोपजीवन कितना ही सुखमय क्यों न प्रतीत हो, भोग की लालसा ही रखते हैं । ये सुख न केवल वास्तव में वह दुःख की ज्वाला में दग्ध रहा करता क्षणिक अपित वास्तव में अन्ततोगत्वा दुःखरूप में है। इसके विपरीत धर्माचरण सहित अजित धन परिणत होने वाले भी होते हैं। वे स्वयं सुख नहीं । मात्रा में चाहे कितना ही अल्प क्यों न हो, वह हैं। वे तो ऐसे साधन हैं जो किसी एक व्यक्ति के ब्यक्ति को आत्मिक संतोष अवश्य देता है और लिए सख तो उसी समय किसी अन्य व्यक्ति के यह मानसिक शान्ति उसके सुख का आधार बन लिए दःख के कारण होते हैं । जब एक ही साधन ।
जाती है। यह सूख स्थिरतायुक्त भी होता है और या कार्य सख भी उत्पन्न कर रहा है और दुःख ! CALL अन्तः-बाह्य दोनों रूपों में एक सा ही होता है । हाँ, भी, तो सच्चे सुख का कारण नहीं कहा जा
सुख-सुविधाओं की मात्रा कम भले ही हो सकती सकता। इसी प्रकार ये साधन तो इतने क्षीण और है, किन्तु इससे सुख के यथार्थ स्वरूप को कोई चंचल हैं कि एक ही व्यक्ति के लिए जो कभी सुख-। हानि नहीं होती । इन लौकिक सुखों के साथ धर्म कर होते हैं अन्य अवसरों पर वे ही दुःख के कारण का नाता बड़ा प्रगाढ़ हुआ करता है । धर्म के बिना भी बन जाते हैं। सन्तान का ही उदाहरण || सुख की शून्यता ही प्रमाणित होगी।
लीजिए । परिवार में शिशु की किलकती हँसी से
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सभी प्रसन्न हो जाते है, कुलदीपक की उपस्थिति से माता-पिता का मन हर्षित, उल्लसित और गर्वित रहता है । सन्तान सुख का कारण है । किन्तु यही पुत्र बड़ा होकर जब कुकर्मी निकल जाता है, कुल को बट्टा लगाता है, अभिभावकों का मस्तक लज्जा से नत होने लगता है - तो दुःख का कारण भी बन जाता है । सच्चा सुख तो सभी के लिए और सभी परिस्थितियों में सुख ही बना रहता है । वह कभी दुःख का रंग धारण कर ही नहीं सकता । बाहरी पदार्थों से जिन सुखों की प्राप्ति की कल्पना
जाती है, उनमें यह गुण नहीं होता । अतः उन्हें सुख कहा ही नहीं जा सकता । सुख की खोज मनुष्य का स्वभाव है-यह सत्य है । इस खोज में व्यग्र मन इन बाहरी वस्तुओं में सुख का अनुभव कर भटक जाता है। उसे क्षणिक सन्तोष होने लगता है कि सुख मिल गया, किन्तु इस सीमा तक तो उसकी खोज सफल नहीं होती। उसे ऐसा सुख नहीं मिलता जिसके छोर पर दुःख की स्थिति न हो । सच्चे सुख को बाहरी किसी वस्तु के आधार की अपेक्षा नहीं होती । न अर्थ सुख का साधन है, कामसुख का साधन है, वास्तविकता तो यह है कि 'इच्छाओं का निरोध' ही सुख का मूलाधार है | अभाव यदि दुःख का कारण है तो अभाव को दूर करने के लिए अमुक वस्तु की प्राप्ति की इच्छा होगी । यही इच्छा दुःख का मूल कारण बनती है । यदि यह इच्छा पूर्ण हो जाती है और अमुक वस्तु उपलब्ध हो जाती है, तो मनुष्य इस पर सन्तोष नहीं करता । वह उससे अधिक, और अधिक की इच्छा करने लगता है। परिणामतः इच्छा पूरी होकर भी सन्तोष प्रदान करने की क्षमता नहीं रखती । इससे तो चित्त में विचलन, अशान्ति और असन्तोष ही जन्मते हैं, जो दुःखरूप में परिणत होते हैं । ऐसी दशा में अहितकारिणी
"इच्छा" का निरोध सुख लाभ के लिए अत्यावश्यक है । यह निरोध अगाध शान्ति और सन्तोष से मन को पूरित कर देता है और ऐसे ही बातावरण में सुख का पदार्पण सम्भव है । इस वास्तविकता को समझे बिना, अपने से बाहर जगत के विषयों और पदार्थों में सुख का आभास पाने वाले भ्रमित जन न्याय-अन्याय का विचार किये बिना अधिक से अधिक मात्रा में ऐसे सुख को प्राप्त करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं । दुःख को मुख समझकर उसका वरण करने की स्पर्धा में ही पीढ़ियाँ व्यस्त रहती हैं । यही कारण है कि संसार में दुःख है । जब तक यह भ्रम बना रहेगा तब तक दुःख का अस्तित्व भी बना रहेगा । जो जब तक
कथाकथित बाह्य सुखों को सुख मानता रहेगा, तब तक वह दुःखी बना रहेगा । वस्तुस्थिति यह है, कोई भी बाह्य पदार्थ न तो स्वयं सुख है और न ही वह किसी सुख का साधन है । सुख तो आन्तरिक वस्तु है, आत्मा का गुण है । हाँ, जीव का स्वभाव यह सुख है, जो वास्तव भीतर ही उत्पन्न होता है प्रायः बाहरी किसी पदार्थ का सहारा लेता है और अबोध मनुष्य अज्ञानवश उन्हीं पदार्थों को सुख के आधार मान लेता है । देहगत विकारों की क्षणिक शान्ति को मनुष्य सुख रूप में जानता है, किन्तु वास्तव में वे सुख होते नहीं । वे तो विकारों के प्रतिकार मात्र हैं । भर्तृहरि की एक उक्ति से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है जिसका आशय है - 'जब प्यास से मुख सूखने लगता है तो मनुष्य सुगन्धित, स्वादु जल पीता है, भूख से पीड़ित होने पर शाकादि के साथ भात खाता है, कामाग्नि के प्रज्वलित होने पर पत्नी का आलिंगन करता है । इस प्रकार रोग के प्रतिकारों को मनुष्य भूल से सुख मान रहा है ।" दृष्टि को बाह्य से समेटकर अन्तर् की ओर मोड़ने
१ तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादुरुचितं क्षुधार्तः सन् शालीन् कवलयति शाकादिबलितान् । वधू प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ||
प्रदीप्ते
कामानौ
सुदृढतरमा लिंगति
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वाले मर्मज्ञ जन इस अन्तर से भली-भाँति अवगत मानना प्रत्येक मनुष्य का प्रधान दृष्टिकोण होना होते हैं । वे जानते हैं कि ये बाहरी साधन दुःख- चाहिए । मानव-जीवन इस चरम सुख की उप
जनित चंचलता के प्रभाव को क्षणिक रूप से दुर्बल लब्धि से ही सार्थक होता है। * मात्र बनाते हैं, अन्यथा स्थायी सुख के प्रदाता ये
मोक्ष-प्राप्ति कैसे ? : जैन दृष्टिकोण । नहीं हो सकते । भीतर से स्वतः विकसित होने
प्रत्येक जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न उबुद्ध वाले वास्तविक सूख को किसी बाह्य पदार्थ का होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है । जब हम हा अपेक्षा रहती ही नहीं है।
यह जान जाते हैं कि जिन सांसारिक सुखों के पीछे ये आभास मात्र कराने वाले अवास्तविक सुख हम अब तक भागते रहे हैं वे असार हैं, सुखाभास PM] दुःखों को दूर नहीं कर पाते । और सुख के अनुभव मात्र हैं, वास्तविक सुख नहीं हैं और मोक्ष ही E के लिए यह अनिवार्य परिस्थिति है कि दुःख का सच्चा और अनन्त सुख है, इसी मंजिल के लिए (3) सर्वथा प्रतिकार हो जाय ।। सुख और दुःख दोनों यह जीवन हमने धारण किया है तो उस मोक्ष को
एक साथ रह नहीं सकते । जब तक जीवन में दुःख प्राप्त करने की लालसा का बलवती हो जाना म है, सुख तब तक आ नहीं सकता और सुख की अस्वाभाविक नहीं। असंख्य जीवन धारण कर
अवस्था में दुःख भी इसी प्रकार अपना कोई चुकने के पश्चात् यह मूल्यवान जीवन जब सुलभ अस्तित्व नहीं रखता है। दुःखों का अभाव हुए होता हो, तो इसे कौन व्यर्थ ही नष्ट कर देना बिना सुख का आगमन सम्भव नहीं हो पाता। चाहेगा। यही कारण है कि सुखकामी मनुष्य हमें सुख के भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए । सच्चे मोक्ष-प्राप्ति का उपाय जानने और उसे अपनाने सुख तक पहुँचने के प्रयत्न हमें आरम्भ करने के लिए उत्सुक रहता है। यह औत्सुक्य, यह
चाहिए। दुःख का उन्मूलन इसके लिए आवश्यक जिज्ञासा ही किसी मोक्षाभिलाषीजन की प्रथम द है । धन और काम की असीम और नियन्त्रणहीन पहचान हो सकती है।
अभिलाषाएं मनुष्य के जीवन को दुःखमय बनाये संकेत रूप में इस बात की चर्चा हो ही चुकी हए हैं, क्योंकि वे धर्म-संयुक्त नहीं हैं । मनुष्य की है कि यह 'धर्म' ही है, जो मनुष्य को अनन्त सुख इच्छाएँ यदि मर्यादित और धर्मयुक्त हों, तो स्वयं की उपलब्धि कराने की क्षमता रखता है। धर्म उसका जीवन तो सुखी होगा ही, उसका जीवन उस नौका के समान है जो मनुष्य को दुःख की अन्य जनों के लिए भी सुखदायी हो जायगा । धर्म उत्ताल तरंगों से भरे समुद्र को पार कर, मिथ्या हमारी असीम इच्छाओं को नियन्त्रित कर, हमें सांसारिक सखों की चटटानों से बचाता हआ मोक्ष पूर्ण सुखी बनाता है। वास्तविक सुख अनन्त है, के अनन्त सुखमय उस पार तक पहुँचा देता है । असीम है, स्थायी है और इसकी परिणति कभी भी धर्म' को समझने के लिए इसके प्रायः ३ विभाग दुःख के रूप में नहीं होती । यही सुख की स्थिति कर लिये जाते हैं'मोक्ष' है। इसी स्थिति को प्रत्येक सज्ञान मनुष्य (१) सम्यग्दर्शन अपने जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। यही मानव- (२) सम्यकज्ञान और जीवन का परम और लक्ष्य हुआ करता है । यह (३) सम्यक्चारित्र मानना भी अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि मोक्ष केवल इन तीनों के संयोग से ही धर्म का समग्र स्वमानव योनि में ही सुलभ हो सकता है, अतः यह रूप खड़ा होता है। आचार्य समन्तभद्र की उक्ति
देह धारण कर इसे ही मूल गन्तव्य और मन्तव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैGB १ 'तत्सुखं यत्र नासुखम्' ८५४० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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"धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं, जिनके उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार के मार्ग हैं 11
इन संसारी मार्गों से छूटकर, दृढ़तापूर्वक धर्म में प्रवृत्त होना मुमुक्षु के लिए अत्यावश्यक है । इस धर्माचरण का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है । इस सिद्धि के बिना आगामी दो सोपानों को अपनाना असंभव सा रहता है ।
सम्यग्दर्शन का भाव है आत्मज्ञान - स्वयं को, आत्मा को पहचानना । मोक्ष तो आत्मा का सुख है और वह किसी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता। ऐसी स्थिति में प्रथमतः उस आत्मा के स्वरूप से परिचय स्थापित कर लेना अत्यावश्यक रहता है । सत्य और मिथ्या में भेद करने की क्षमता का विकास आवश्यक है । अन्यथा हमारी साधना मिथ्या की ओर ही उन्मुख रह जाय, सत्य की ओर हमारा ध्यान जाये ही नहीं - ऐसा होने की आशंका बनी रहती है । हम क्या हैं ? संसार की जिन परिस्थितियों और पदार्थों के मध्य हम हैंवे क्या हैं ? जब तक इसका विवेक विकसित न हो, हम त्याज्य और ग्राह्य में अन्तर नहीं कर सकते हैं । आत्मा का बाह्य पदार्थों से छुटकारा मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक है । यह तभी संभव है, जब हम यह स्पष्टतापूर्वक समझ लें कि जिसका छुटकारा कराना है वह आत्मा है क्या ? और इसी प्रकार यह जानना भी आवश्यक है कि जिनसे छूट कारा पाना है, वे पदार्थ कैसे हैं, क्या हैं ? स्वर्ण की खान से निकला पिंड शुद्ध स्वर्ण नहीं होता । उसमें अशुद्धियाँ मिश्रित होती हैं । शोधन करने वाले के लिए यह आवश्यक होता है कि वह स्वर्ण क्या होता है, इसे भली-भाँति पहचान सके । साथ ही स्वर्ण के साथ मिली रहने वाली अशुद्धियों का ज्ञान भी उसे होना चाहिए। तभी वह उपयुक्त
१ सद्दृष्टिज्ञानव्रत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । दीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥
विधियाँ प्रयुक्त कर अशुद्धियों को दूर कर सकता है। और खरा स्वर्ण पिंड प्राप्त कर सकता है । उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध रूप क्या है और इसके साथ लगे रहने वाले विकार क्या हैं ? यह जाने बिना व्यक्ति आत्मा को विकारमुक्त, शुद्ध नहीं कर
सकता ।
एक और भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । मुमुक्षु लिए इस तथ्य में अचल और अमर आस्था, पक्का विश्वास होना आवश्यक है कि
"ज्ञान-दर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है । शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न शेष समस्त पदार्थ बाह्य हैं- मुझसे भिन्न हैं और वे मेरे नहीं हैं । ""
शुभाशुभ कर्मों द्वारा जनित उन पदार्थों से ममत्व त्यागना आवश्यक है जो हमारी आत्मा से जुड़ गये हैं । ममत्व को त्यागे बिना उनसे उबरना संभव नहीं है । आत्मा का इनसे छुटकारा करने की दिशा में यह अत्यावश्यक है कि जहाँ हम आत्मा और इन शुभाशुभ ( त्याज्य) कर्मों को पहचानें वहाँ यह भी परमावश्यक है कि हमें इस सिद्धान्त में पक्की आस्था हो कि केवल आत्मा ही हमारी है, शेष बाह्य पदार्थ हमारे नहीं हैं और इनसे छुटकारा पाना है । जब तक यह आस्था न होगी, हम छुटकारे के प्रयत्नों में दृढ़ता के साथ प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे। यदि अ में हम प्रयत्न आरम्भ करेंगे भी, तो वह मात्र दिखावा होगा और वे प्रभावी नहीं हो सकेंगे । इस विषय में जो शंकाएँ मन में आयें उन्हें पहले ही दूरकर ढ़ आस्था विकसित करना ही वास्तव सम्यग् दर्शन है । इसी के अनन्तर मुक्तिपथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। आत्मा के स्वरूप की वास्तविकता को पहचानना और उस पर दृढ़ हो जाना आवश्यक है । शरीर और आत्मा में अभेद स्थिति को मानना अर्थात् जो यह शरीर है वही आत्मा
२ एगो मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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है-ऐसा मानना मिथ्या है। इस मिथ्या से मुक्त स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर आस्था को सुदृढ़ और मन । होकर तथा आत्मतत्त्व को पहचान कर उससे विच को निःशंक करना अनिवार्य है। यह निःशंकता लित न होना ही परम पुरुषार्थ मुक्ति की प्राप्ति का सम्यग्दर्शन का प्रथम एवं सर्वप्रमुख अंग है । शंका IC उपाय है।
की अवस्था में आस्था का अटल होना संभव नहीं ट्र जैनदर्शनानुसार मुक्ति के लिए जिन तत्त्वों का होता । निर्धारण है-उन पर दृढ आस्था सम्यगदर्शन है। निष्कामता सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है।
और उन तत्त्वों की पहचान, उनका यथोचित ज्ञान सांसारिक सुख-वैभव, विषयादि की समस्त कामही सम्यक ज्ञान है। सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शन नाओं का सर्वथा परित्याग करना भी अनिवार्य के अभाव में मोक्ष-मार्ग की यात्रा संभव नहीं है। है । अभिलाषाओं से भरा मन चंचल रहता है और यदि इस अभाव में भी कोई यात्रारम्भ कर देगा, चंचलता इष्ट मार्ग पर अग्रसर होने में व्यवधान ६ तो निश्चित रूप से वह भटक जायगा, पथच्युत हो उपस्थित करती है । कामनाओं से ग्रस्त मनुष्य का जायगा। लक्ष्य तक पहुँचना उसके लिए सम्भव लक्ष्य भी स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्यादि तक ही सीमित होगा ही नहीं। सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेने रह जाता है। वह इन्हीं विषयों में मग्न हो जाता वाला व्यक्ति 'सम्यकदृष्टि' के विशेषण से विभषित है और सर्वोपरि लक्ष्य से उसका ध्यान विचलित होता है । उसकी यह योग्यता मोक्षमार्ग से उसे न ही जाता है। ऐसी दशा में उसका मार्ग-भ्रष्ट हो भटकने देती है, न विचलित होने देती है और जाना सर्वथा स्वाभाविक ही है। अस्तु, मोक्ष के क्रमशः वह सफलता की ओर अग्रसर होता रहता अभिलाषीजन के लिए निष्काम होना अनिवार्य है। है । सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान मोक्ष-मार्गी के सम्यग्दर्शन के तीसरे अंग के अन्तर्गत मनुष्य ॥ लिए मार्गदर्शक और प्रेरक बने रहते हैं, कर्णधार के ग्लानिभाव का निषेध किया गया है । इस जगत 10 की भाँति समय-समय पर उचित दिशा का संकेत में अनेक धनहीन रंक हैं, अनेक रोगी और दुःखी करते रहते हैं, सही मार्ग पर आगे से आगे बढ़ाते हैं। सम्यग्दष्टि व्यक्ति ऐसे दीन-हीन और दुःखित रहते हैं।
जनों के प्रति उपेक्षा या ग्लानि का भाव नहीं
सम्यग्दर्शन के अंग रखता। मनुष्य की जो भी दशा है उसके पूर्वकर्मों विभिन्न अंगों के सामंजस्य से जैसे देह अपना के प्रतिफल के रूप में ही होती है। कर्मों के क्रम आकार ग्रहण करता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन भी परिवर्तन के साथ ही इन दशाओं में भी परिवर्तन अपने अंगों के समन्वय का ही प्रतिफल हैं । सम्यग्- हो जाता है। घृणा करने वाला स्वयं यह नहीं दर्शन के आठ अंग हैं। जैसी कि पहले ही चर्चा की जानता कि आगामी समय स्वयं उसका क्या रूप जा चुकी है, मोक्ष-मार्ग की सार्थकता और तात्त्विक बना देगा ? जो आज सम्पन्न है वह कल विपन्न भी है विवेचन पर व्यक्ति का अटल विश्वास होना हो सकता है और जो आज रोगी है वह भी कल ( चाहिये। उसके मन में कोई दुविधा नहीं रहनी स्वस्थ हो सकता है। सम्यग्दृष्टि जन व्यक्ति की चाहिये । यह मार्ग सार्थक है या नहीं, अथवा इस इन दशाओं पर नहीं, अपितु केवल उसके गुणों पर मार्ग से सफलता मिलेगी या नहीं ऐसी मानसिक ही ध्यान देते हैं। दशा मोक्ष-मार्ग की यात्रा के प्रतिकूल रहती है। सम्यग्दर्शन का चौथा अंग इस बात का संकेत अर्द्ध ज्ञान से प्रायः ऐसी मनोदशा रहती है अतः करता है कि किसी भी दशा में मनुष्य को बुरे
१ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् ॥ ५४२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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और बुराई का समर्थन नहीं करना चाहिए । ऊपरी मन से अथवा किसी दबाब के कारण भी यदि वह अवगुणों अथवा कुमार्ग का प्रशंसक हो जाता है, तो धीरे-धीरे वह ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि दबाव न होने की स्थिति में भी वह बुरे की प्रशंसा ही करने लग जाता है । वस्तुतः उसे तब बुरे में कोई बुराई दिखाई ही नहीं देगी । परिणामतः स्वयं उसका आचरण भी वैसा ही ( बुरा ) होने लग जाता है । बुराई का समर्थन इस प्रकार मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। बुराई के झूठे समर्थन से भी संसार में उसका प्रसार और शक्ति बढ़ती है | कुमार्ग भी क्षणिक आकर्षण तो रखते ही हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह इस चेटक से स्वयं को अप्रभावित रखे और किसी बुराई को अपने पर हावी नहीं होने दे ।
जहाँ चौथा अंग बुराई के प्रसार पर रोक लगाता है, वहाँ सम्यग्दर्शन का पाँचवाँ अंग सन्मार्ग के अधिकाधिक प्रसार की प्रेरणा देता है | मनुष्य को चाहिए कि सन्मार्ग की खूब प्रशंसा करे । उसे स्वयं भी सन्मार्गी होना चाहिए और उसे दूसरों को भी ऐसा बनने की प्रेरणा देनी चाहिए । जब कभी सन्मार्ग या अच्छाइयों की निन्दा हो तो उसे उसका प्रतिकार करना चाहिए। अबोधजन अथवा दुर्जन ऐसा व्यवहार कर सकते हैं किन्तु सम्यक दृष्टि जन सदा निर्भीकता के साथ उनका विरोध करते हैं। इस प्रकार लोक में सन्मार्ग का रक्षण करना सम्यग्दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
इसी से सम्बद्ध छठा अंग है कि जब कभी मनुष्य स्वयं अथवा कोई अन्य जन सन्मार्ग से च्युत हो रहा हो, तो उसे चाहिए कि उसे दृढ़ बनावे । सन्मार्ग न छोड़ने को प्रेरणा देना और स्वयं भी सन्मार्गी बने रहना इस अंग के अन्तर्गत मनुष्य का कर्त्तव्य है ।
सम्यग्दर्शन का सातवाँ अंग धर्म के आन्तरिक पक्ष की दृढ़ता के लिए है । इसके अनुसार व्यक्ति
को अपने सहधर्मी सहयोगियों के प्रति अतिशय स्नेह रलना चाहिए। यह पारस्परिक स्नेह सभी के मन में धर्म के प्रति रुचि को प्रगाढ़ बनाता है और अन्य जन इस मृदुल व्यवहार एवं स्नेहसिक्त वातावरण से प्रभावित होकर प्रेरणा ग्रहण करते हैं । धर्मानुयायियों के साथ-साथ धर्म के प्रति भी श्रद्धा और स्नेह का भाव होना अनिवार्य है ।
इसी प्रकार सम्यग्दर्शन का आठवाँ और अन्तिम अंग धर्म के विकास और उसकी विशेषताओं के प्रचार-प्रसार से भी सम्बन्धित है और और अन्य जनों को मिथ्यात्व से मुक्त कर धर्म
में
प्रवृत्त करने की प्रेरणा देता है । व्यक्ति को जनसाधारण में व्याप्त अज्ञानान्धकार को दूर कर पवित्र, अहिंसामय धर्म का अधिकाधिक प्रसार करने में व्यस्त रहना चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि जन धर्म के विकास में अपना विनीत योगदान करते रहते हैं । ऐसे जन धर्म और धर्मानुयायियों में अन्तर नहीं करते । धर्मप्रेम और धार्मिकों के प्रति प्रेम दोनों परस्पर पर्यायरूप में होते हैं । धार्मिकों का सम्मान करने से ही धर्म का सम्मान किया जा सकता है । धर्म तो सूक्ष्म रूपधारी होता है । उसका यत्किचित् व्यक्त स्वरूप धर्मानुयायियों के रूप में ही हमारे समक्ष आ पाता है । सम्यकदृष्टि जन अत्यन्त कोमल व्यवहार वाले और विनम्र होते हैं । उन्हें अपने तप, साधना, अर्जित क्षमता, उच्चता, वंश, यश आदि का कोई अहं नहीं होता । अहं तो तब आता है, जब व्यक्ति अपने को उच्च और अन्य जनों को इस अपेक्षा में निम्न मानने लगता है । सम्यकदृष्टि जन ऐसा व्यवहार नहीं करते ।
यह सम्यग्दर्शन स्वतः मोक्ष नहीं है । मोक्ष के मार्ग का अनुसरण करने के लिए यह आवश्यक तैयारी मात्र है । यह वह भूमिका है, जिसके पश्चात् धर्मांकुरण सम्भव हो पाता है । यह व्यवहार व्यक्ति को मोक्ष मार्ग का पथिक बनने की
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अपेक्षित शक्ति देता है और अनुकूल वातावरण साधन सामग्री प्राप्त होती रहती थी। सभी संतुष्ट तैयार करता है। ज्वलित-दुखित जगत के मध्य और परम सुखी थे। रहकर भी सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता अद्भुत
परिवर्तनशील समय परिस्थितियों को सदा । शान्ति का अनुभव कर सकता है।
एक सो कहाँ रखता है ? प्रकृति के भंडारों में 8 सम्यक्चारित्र
अभाव आने लगा। उपभोग्य सामग्री की सुलभता चारित्र या आचरण मनुष्य की गतिविधियों में व्यवधान आना भी स्वाभाविक था । ऐसी परिका समुच्चय है। मनुष्य की ये गतिविधियाँ उचित स्थिति में मनुष्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन आया। भी होती हैं और अनुचित भी। अनुचित गति- संकट का अनुभव उसे आरम्भिक रूप से होने लगा विधियों से मनष्य स्वयं के लिए भी कष्टकर था। उसकी सन्तोष की मनोवत्ति समाप्त हा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है और समाज के लगी। आज की क्षधा मिटने मात्र से उसे सन्तोष 8 लिए संकट भी। ऐसी स्थिति में मनुष्य के आच- नहीं होता-वह तो कल की भी चिन्ता करने रण पर अंकुश होना ही चाहिये। धर्म ही ऐसे लगा। परिणामतः उसके मन में लोभ की दुष्प्रवृत्ति नियन्त्रण की क्षमता रखता है। आज जब समाज जगी । वह साधनों का संग्रह करने लगा। शक्तिमें विभिन्न स्तरीय विषमताओं का साम्राज्य है- शाली लोग अधिक संग्रह कर लेते और दुर्बलजन इसकी और भी अधिक आवश्यकता अनुभव होती साधनहीन होने लगे। और यों समाज में असमाहै । व्यक्ति स्वसुख के लिए स्वार्थवश पर-दुखकारी नता और विषमता अंकुरित होने लगी। स्थिति बन जाता है। मनुष्य में इस विकृति की और यही नहीं रही, अपितु उसने अपराधों को भी जन्म समाज में विषमता की- दोनों की उत्पत्ति एक ही दिया। साधनहीनों ने साधन-गम्पन्नों के पास से साथ हुई और समानान्तर रूप से दोनों का साथ बलपूर्वक साधनों को छीनने का प्रयत्न भी किया । साथ ही विकास भी हुआ है। जब मनुष्य का और समाज में अशान्ति व्याप्त होने लगी। यदि स्वार्थ बढ़ता है, तो विषमता भी विकसित होती है साधनहीन दुर्बल हुए तो साधनों की चोरी करने और विषमता के साथ-साथ स्वार्थ की भावना बल- लगे-इस प्रकार एक और बुराई उत्पन्न हुई। वती होती चली जाती है। इस प्रकार ये दोनों क्रमशः ये बुराइयाँ कई गुनी अधिक बढ़ती गयीं विकार परस्पर पोषक हैं । जैनधर्म के आदिकाल और समाज क्या से क्या हो गया। में कोई विषमता नहीं थी, परिणामतः मानव-जाति ऐसे अराजकता और अशान्तिपूर्ण समाज पर सर्वथा विकारशून्य, निरीह और निश्छल थी। वह नियंत्रण आवश्यक होता है । दुःखित जनों के दुःखों वर्तमान अवसर्पिणी काल के आरंभ का समय था। को दूर करना भी आवश्यक है। आवश्यकता इस आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के कुछ समय बात की थी कि भोग की प्रवृत्ति को छोड़कर मनुष्य पूर्व तक का काल बड़ा सुखमय और शान्तिपूर्ण उद्यम में प्रवृत्त हो। मनुष्य द्वारा उत्पादन करना था । तब इस 'भोग भूमि' पर सभी सुखी थे। ही समस्या का रचनात्मक समाधान था। साधनों किसी को कोई कष्ट न था। बिना श्रम किये ही के अभावों को श्रम द्वारा स्वयं मनुष्य दूर कर । सब को सभी उपभोग्य सामग्रियाँ स्वतः ही उप- सके-इस दिशा में कुशल मार्गदर्शन अपेक्षित था। लब्ध हो जाती थीं। किसी को उनके संचय का ऐसे ही समय में आदिनाथ भगवान ऋषभदेव का लोभ भी नहीं था। न कोई विपन्न था और न ही जन्म हआ था। भगवान ने कृषि, शिल्प, व्यापाकोई सम्पन्न । विषमता का लेशमात्र भी नहीं था। रादि करना सिखाया और अभाव की समस्या का प्रकृति के विपुल भण्डार से सभी को यथोचित निदान आरम्भ हुआ । व्यक्ति श्रमशील होने पर ५४४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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लगा। उत्पादन द्वारा आवश्यकतानुरूप सामग्री सज्जन है या दुर्जन, धार्मिक है या अधार्मिक उपलब्ध होने लगी, किन्तु मनुष्य के चरित्र में जो आदि । चारित्र के अनुसार ही यह भी ज्ञान किया विकार आ गये थे, उन्हें भी दूर करना आवश्यक जा सकता है कि कौन किस का मित्र अथवा शत्रु था। इसके बिना विषमता को दूर करना और है ? इसी प्रकार चारित्र ही किसी व्यक्ति को शान्ति स्थापित करना सम्भव नहीं था। भगवान प्रतिष्ठित और उच्च भी बना सकता है और ने मानव जाति पर यह उपकार भी किया। किसी का पतन भी कर सकता है। उन्होंने मनुष्यों को अहिंसात्मक आचरण का उप- चारित्र दो प्रकार का होता है। कुछ करना 0 देश दिया और अहिंसा को ही धर्म के रूप में चारित्र के अन्तर्गत आता ही है, किन्तु साथ ही प्रतिष्ठित कर दिया । भगवान ने इस अहिंसाधर्म साथ कुछ कामों का न किया जाना भी चारित्र का के समग्रतः पालन के पक्ष में सहायक तत्त्वों- ही अंग है। अच्छे कामों का किया जाना जितना सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश महत्त्वपूर्ण है, अशुभ कार्यों का न किया जाना भी दिया । तब से अहिंसा सहित ये चार तत्त्व अर्थात्- मनुष्य की सज्जनता के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण ये पांच यम जनधर्म का मूल आचार हो गया। है । यह कहा जा सकता है कि चारित्र के दो प्रकार क्रमशः इसमें विकास होता रहा और इसके प्रचार- हैं-प्रवृत्तिमूलक चारित्र और निवृत्तिमूलक प्रसार में अन्य तीर्थंकरों का महत्त्वपूर्ण योगदान चारित्र । यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य अच्छे भी होता रहा।
और बुरे दोनों ही प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति रख एक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह सकता है । इसी प्रकार उसकी निवृत्ति का सम्बन्ध का पालन जैनाचार का मूल रूप है। सभी जैन- भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों से हो धर्मानुयायी अनिवार्यतः इस आचार का पालन सकता है। आदर्श चारित्र से अनुरूप व्यक्ति को करते हैं। यह मात्र मुनिजनों के लिए नहीं । हाँ, शुभ के प्रति प्रवृत्ति और अशुभ के प्रति निवृत्ति गृहस्थों और विरक्त मुनियों द्वारा पालन किये का भाव रखना चाहिए। जाने वाले आचार में परिमाण का अन्तर हो जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, सकता है। इसी दृष्टि से यह माना जाता है कि मनुष्य की समस्त गतिविधियों के तीन ही द्वार इस निर्धारित जैनाचार का गृहस्थजन एकदेश से हैं-मन, वचन और काया । प्रवृत्ति के ये ही तीन ॥ और मुनिजन सर्वदेश से पालन करते हैं । चारित्र साधन हैं। इन्हीं साधनों से मनुष्य की शुभ प्रवृत्ति एक व्यापक पारिभाषिक शब्द है । इसके अन्तर्गत भी सम्भव है और अशुभ प्रवृत्ति भी। किसी के मनुष्य की समस्त सूक्ष्म गतिविधियाँ भी परि- प्रति ईर्ष्या रखना, किसी के अहित की कामना ₹ गणित होती हैं । मनुष्य जो कुछ उच्चारित करता करना आदि अशुभ मानसिक प्रवृत्तियाँ हैं। इसी है, यही नहीं अपितु वह जो कुछ सोचता है-वह प्रकार किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना, भी उसकी गतिविधियों में सम्मिलित होता है और कटुवचनों का उच्चारण करना आदि अशुभ ये सारी गतिविधियाँ चारित्र के अन्तर्गत आ जाती वाचिक प्रवृत्तियाँ हैं । दूसरों के लिए कष्टप्रद कार्य हैं । मन, वचन और काया की समस्त क्रियाएँ करना, हिंसापूर्ण कार्य करना, दूसरों को हानि चारित्र की परिधि में आती हैं। वस्तुतः पहुँचाना आदि अशुभ कायिक प्रवृत्तियाँ हैं । यह मनुष्य का जो चारित्र है, वही वह स्वयं है, वही सभी अशुभ प्रवृत्तियाँ त्याज्य समझी जानी चाहिये। उसका व्यक्तित्व है। चारित्र के आधार पर ही इन्हीं द्वारों-मन, वचन और काया का सदुपयोग उसका मूल्यांकन होता है कि वह भला है या बुरा, शुभ प्रवृत्तियों द्वारा किया जा सकता है । किसी के
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प्रति मंगल कामना रखना, संसार भर के प्राणियों सकता। निर्णय के लिए कसौटी तो कर्ता का मंतब्य का हित-चिन्तन करना, सभी के लाभ की भावना ही है। शुभ मंतव्य ही कार्य को शुभ बनाता है, रखना ऐसी शुभ प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानसिक हैं। चाहे कार्य अशुभवत् दिखायी देता हो। इसके इसी प्रकार सदा मधुर, प्रिय और कोमल वचनो विपरीत अत्यन्त शुभ दिखायी देने वाला काय? का उच्चारण करना, वाणी द्वारा सभी के प्रति यदि बुरे उद्देश्य से किया जा रहा है तो वह शुभ स्निग्ध व्यवहार रखना-वाचिक शुभ प्रवृत्तियाँ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए, ठग कहलाती हैं। इसी प्रकार किसी प्राणी को कष्ट न मीठी-मीठी बातें करे, ग्राहक के लिए लाभ का पहुँचाना, हिंसामूलक कर्म न करना, किसी की सौदा दिखाये, उसके लिए हितैषी जैसा बना रहे,
रना आदि शुभ कायिक प्रवत्तियाँ हैं। तो उसका यह व्यवहार बुरे इरादे से होने के कारण || ये शुभ प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य के लिए आदर्श एवं शुभ नहीं हो सकता। आखेटक दाना डालकर , अनुकरणीय होती हैं। इन शुभ प्रवृत्तियों के आधार पक्षियों को एकत्रित करता है। पक्षियों को दाना पर ही मनुष्य की धार्मिकता का भी मूल्यांकन डालना शुभ लगते हुए भी शुभ इस कारण नहीं है
| करता है। अशभ के प्रति कि अन्ततः वह पक्षियों को अपने जाल में फंसा, निवृत्ति का भाव रखने से शुभ के प्रति प्रवृति का लेना चाहता है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि भाव बलवान बनता है।
क्या किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय उस कार्य किसी कार्य को ऊपर-ऊपर से देखकर ही सह- के परिणाम के आधार पर किया जा सकता है ? जतः उसके शुभ अथवा अशुभ होने का निर्णय कर नहीं, ऐसा करना भी भ्रामक ही होगा। उदाहरण लिया जाता है, किन्तु यह भ्रामक होता है। कभी के लिए, शल्य चिकित्सा के परिणामस्वरूप यदि कभी कार्य ऊपर से अशभ दिखायी देता है. किंत रोगी रोगमुक्त होने के स्थान पर दुर्भाग्यवश मर । वास्तव में वह होता शुभ है। निरीह पशुओं को जाता है, ऐसी स्थिति में क्या चिकित्सक का कार्य निर्ममता के साथ पीटना, शस्त्रास्त्र के प्रयोग द्वारा
अशुभ कहा जायगा? नहीं, अशुभ नहीं कहा जा उनके शरीर को क्षत-विक्षत कर देना-किसी भी
सकता। परिणाम तो संयोगवश कुछ भी हो स्थिति में मन की प्रा प्रवति नहीं हो सकती। सकता है, काय के पछि कत्ती का जो भाव है वही। किंतु कोई शल्य चिकित्सक पैने उपकरण गाड़कर
हमारे लिए निर्णय की कसौटी होगी। अन्यथा,
आखेटक के जाल फैलाने पर भी यदि सारे पक्षी रोगी के अंगों को जब चीर-फाड़ देता है तो स्थिति तनिक भिन्न रहती है। रोगी को कष्ट हुआ, इस
उड़कर भाग जायें और वह एक भी पक्षी को पकड़ भयंकर कष्ट का कारण भी चिकित्सक का कर्म ही
न पाय, तो क्या आखेटक का कार्य शुभ हो जायगा ? है। किंतु चिकित्सक का यह कर्म अशुभ नहीं है।
परिणाम चाहे कैसा भी घटित हो, कार्य के ? कारण यह है कि चिकित्सक के इस कर्म पीने के आरम्भ में ही कर्ता के मंतव्य और भावना के कोई अशुभ मंतव्य नहीं है। वह रोगी को रोग- अनुसार कार्य का शुभाशुभ रूप निश्चित हो जाता मुक्त करना चाहता है और इसी उद्देश्य से वह ह
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है। अस्तु, शुभ प्रवृत्ति के लिए मंतव्य एवं भावना चीर-फाड़ कर रहा है । चिकित्सक का कर्म अन्य का शुभ होना भी अत्यावश्यक है। जन (रोगो) के लिए प्रत्यक्षतः पीड़ा का कारण हमारे यहाँ निवृत्ति का बड़ा गुण गान किया होते हुए भी अशुभ नहीं कहा जा सकता। गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रवृत्ति
भाव यह है कि केवल प्रत्यक्ष स्वरूप मात्र से तुच्छ है। प्रवृत्ति भी महत्त्वपर्ण है और यही किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय नहीं किया जा प्रयत्नापेक्षित भी है । 'कुछ करना' प्रवृत्ति' का ही। ५४६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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________________ GOX COM 6 रूप है। मनुष्य सहजतः सुखकामी होता है और के ही कुछ का कुछ हो जाने की आशंका बनी // सुख की लालसा से ही वह प्रवृत्तियों की ओर रहती है। अतः प्रवृत्ति में जागरूकता और शुभ उन्मुख होता है। कुछ करने से ही कुछ प्राप्त के प्रति दृढ़ता का भाव अत्यन्त आवश्यक है / शुभ * होगा और कुछ न करने से कुछ भी प्राप्त होने को प्रवृत्ति सदैव प्रशंसनीय और हितकर रहती है। / कोई सम्भावना नहीं होगी-सामान्यतः हमारी निवृत्ति का जो गुण-गान किया जाता है वह है। ऐसी धारणा रहती है। यही कारण है कि हम भी व्यर्थ और आधारहीन नहीं है। निवृत्ति की 10 कर्म में प्रवृत्त होते हैं / साधारणजन अयथार्थ सुखों महिमा यथार्थ में अत्युच्च है। यह अन्य बात है को सच्चा सुख मानकर उन्हें प्राप्त करने के लिए कि प्रवृत्ति के प्रति जितनी सुगमता के साथ मनुष्य है। प्रवृत्ति में लगते हैं। उन्हें वे सुख (तथाकथित) आकर्षित हो जाता है उतनी सुगमता के साथ है, भले ही प्राप्त हो जायें, किन्तु उनके अन्तिम परि- निवृत्ति के प्रति नहीं हो पाता / निवृत्ति दुष्कर णाम तो दुःख ही होते हैं। अतः उन्हें वास्तविक है और अपेक्षाकृत कम आकर्षक है, किन्तु निवृत्ति सुख की प्राप्ति प्रवृत्ति से नहीं हो पाती। इसमें से प्राप्त सुख अनन्त, स्थायी और यथार्थ सुख है / दोष प्रवृत्ति का नहीं है। प्रवृत्ति का उद्देश्य यदि प्रवृत्ति का सुख, इसके विपरीत लौकिक, असार थायी, अनन्त वास्तविक सख को मानकर, तदन- और अवास्तविक सुख है, वह समाप्य सुख है। रूप कार्य किये जायें तो वैसा सुख-लाभ भी होता मनुष्य का मन्तव्य स्थायी सुख होना चाहिए और हैं ही है / अतः प्रवृत्ति को निकृष्ट कहने का कोई उसकी प्राप्ति में निवृत्ति का रूप अधिक सहायक प्रयोजन नहीं है। प्रवृत्ति भी सुखदायी होती है, रहता है। वस्तुतः प्रवृत्ति (शुभ) और निवृत्ति शर्त यही है कि उसके लिए सच्चे सख का लक्ष्य दोनों परस्पर पूरक स्थान रखती हैं। मोक्ष की निर्धारित किया जाय, उस लक्ष्य प्राप्ति के योग्य प्राप्ति में निवृत्ति का प्रमुख स्थान है, किन्तु कुछ प्रयत्न किये जायें। हां, मिथ्या और अयथार्थ कुछ सहारा शुभ प्रवृत्तियों का भी होता अवश्य || सांसारिक विषयों के लिए जो प्रवृत्ति है, वह है। मात्र किसी एक से कार्य सधता नहीं / विचा अवश्य ही निकृष्ट और हेय है / प्रवृत्ति भी सच्चे रकों की धारणा है कि मनुष्य को प्रवृत्ति मार्ग पर सख का एक मूलभूत आधार है अवश्य, किन्तु इस चलते हुए भी अपनी दृष्टि सदा निवृत्ति की ओर / सम्बन्ध में भय यह बना रहता है कि किसी भी रखनी चाहिए। चारित्र के प्रवृत्तिमूलक और समय यह शुभ की सीमा रेखा लांघकर अशुभ रूप निवृत्तिमूलक दोनों ही रूपों का प्राणाधार अहिंसा NI ग्रहण कर सकती है। अतः प्रवृत्तियों पर संयम के है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इस FI कठोर अंकुश की तीव्र आवश्यकता बनी रहती महती अहिंसा के समर्थ और सक्षम रक्षक हैं / है / विचलन से प्रवृत्तियों का रूप और इससे लक्ष्य कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 547 36. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 Education Internatio Sor Private & Personal Use Only www.jainerary.org