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"धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं, जिनके उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार के मार्ग हैं 11
इन संसारी मार्गों से छूटकर, दृढ़तापूर्वक धर्म में प्रवृत्त होना मुमुक्षु के लिए अत्यावश्यक है । इस धर्माचरण का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है । इस सिद्धि के बिना आगामी दो सोपानों को अपनाना असंभव सा रहता है ।
सम्यग्दर्शन का भाव है आत्मज्ञान - स्वयं को, आत्मा को पहचानना । मोक्ष तो आत्मा का सुख है और वह किसी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता। ऐसी स्थिति में प्रथमतः उस आत्मा के स्वरूप से परिचय स्थापित कर लेना अत्यावश्यक रहता है । सत्य और मिथ्या में भेद करने की क्षमता का विकास आवश्यक है । अन्यथा हमारी साधना मिथ्या की ओर ही उन्मुख रह जाय, सत्य की ओर हमारा ध्यान जाये ही नहीं - ऐसा होने की आशंका बनी रहती है । हम क्या हैं ? संसार की जिन परिस्थितियों और पदार्थों के मध्य हम हैंवे क्या हैं ? जब तक इसका विवेक विकसित न हो, हम त्याज्य और ग्राह्य में अन्तर नहीं कर सकते हैं । आत्मा का बाह्य पदार्थों से छुटकारा मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक है । यह तभी संभव है, जब हम यह स्पष्टतापूर्वक समझ लें कि जिसका छुटकारा कराना है वह आत्मा है क्या ? और इसी प्रकार यह जानना भी आवश्यक है कि जिनसे छूट कारा पाना है, वे पदार्थ कैसे हैं, क्या हैं ? स्वर्ण की खान से निकला पिंड शुद्ध स्वर्ण नहीं होता । उसमें अशुद्धियाँ मिश्रित होती हैं । शोधन करने वाले के लिए यह आवश्यक होता है कि वह स्वर्ण क्या होता है, इसे भली-भाँति पहचान सके । साथ ही स्वर्ण के साथ मिली रहने वाली अशुद्धियों का ज्ञान भी उसे होना चाहिए। तभी वह उपयुक्त
१ सद्दृष्टिज्ञानव्रत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । दीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥
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विधियाँ प्रयुक्त कर अशुद्धियों को दूर कर सकता है। और खरा स्वर्ण पिंड प्राप्त कर सकता है । उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध रूप क्या है और इसके साथ लगे रहने वाले विकार क्या हैं ? यह जाने बिना व्यक्ति आत्मा को विकारमुक्त, शुद्ध नहीं कर
सकता ।
एक और भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । मुमुक्षु लिए इस तथ्य में अचल और अमर आस्था, पक्का विश्वास होना आवश्यक है कि
"ज्ञान-दर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है । शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न शेष समस्त पदार्थ बाह्य हैं- मुझसे भिन्न हैं और वे मेरे नहीं हैं । ""
शुभाशुभ कर्मों द्वारा जनित उन पदार्थों से ममत्व त्यागना आवश्यक है जो हमारी आत्मा से जुड़ गये हैं । ममत्व को त्यागे बिना उनसे उबरना संभव नहीं है । आत्मा का इनसे छुटकारा करने की दिशा में यह अत्यावश्यक है कि जहाँ हम आत्मा और इन शुभाशुभ ( त्याज्य) कर्मों को पहचानें वहाँ यह भी परमावश्यक है कि हमें इस सिद्धान्त में पक्की आस्था हो कि केवल आत्मा ही हमारी है, शेष बाह्य पदार्थ हमारे नहीं हैं और इनसे छुटकारा पाना है । जब तक यह आस्था न होगी, हम छुटकारे के प्रयत्नों में दृढ़ता के साथ प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे। यदि अ में हम प्रयत्न आरम्भ करेंगे भी, तो वह मात्र दिखावा होगा और वे प्रभावी नहीं हो सकेंगे । इस विषय में जो शंकाएँ मन में आयें उन्हें पहले ही दूरकर ढ़ आस्था विकसित करना ही वास्तव सम्यग् दर्शन है । इसी के अनन्तर मुक्तिपथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। आत्मा के स्वरूप की वास्तविकता को पहचानना और उस पर दृढ़ हो जाना आवश्यक है । शरीर और आत्मा में अभेद स्थिति को मानना अर्थात् जो यह शरीर है वही आत्मा
२ एगो मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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