Book Title: Jain tattva Mimansa Ek Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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Page 4
________________ पंचम खण्ड : 635 सम्बन्ध है ही नहीं, फिर भी भिन्न द्रव्यका भिन्न द्रव्यसे कर्ताकर्म सम्बन्ध कहना व्यवहार कथनमात्र है, निश्चयसे तो कर्ता-कर्म सम्बन्ध एक ही वस्तुमें घटित होता है। जो परिणमन करे वही कर्ता है, जो परिणाम है, वही कर्म है तथा जो परिणति है वही क्रिया है, परमार्थसे तीनों वस्तुमय है, वस्तुसे भिन्न नहीं है। इससे स्पष्ट है कि कर्ताकर्म सम्बन्ध एक ही द्रव्यमें तथा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दो द्रव्योंमें घटित होता है। अतः एक कार्यके दो कर्ता भी नहीं होते, दो कर्ताओंका एक कार्य नहीं होता क्योंकि एक एक ही रहता है, अनेक नहीं हो सकता / अस्तु / देखिये समयसारके कलश क्रमांक 200, 210, 51, 54) / / षट्कारकमीमांसा–क्रियाके प्रतिप्रयोजकको कारक कहते हैं / कारक 6 होते हैं-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण / ये षट्कारक भी एक ही द्रव्यमें घटित होते हैं तथा पर्याय दृष्टिसे एक ही पर्यायमें षटकारक होते हैं, अन्य द्रव्यके साथ कारकपना कहना उपचार मात्र जानना चाहिए-पर वास्तवमें अनादिकालसे जीव स्वाश्रयपनेको भलकर परद्रव्योंसे कारकपनेका विकल्प करके पराश्रित बना हुआ कार्यकारी है। क्रमनियमितपर्याय मीमांसा-यह प्रकरण पंडितजीने सविस्तार, सतर्क तथा सप्रमाण स्पष्ट किया है, जो स्पष्टीकरण उनके बाद क्रमबद्धपर्याय पर कलम चलाने वाले लेखकोंको मार्गदर्शक तथा मुख्य आधार / क्रमबद्ध पर्यायका अर्थ है. प्रत्येक कार्य अपने स्वकालमें ही होता है। तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्योंकी उनके सभी गुणोंकी त्रिकालवर्ती पर्यायें अपने-अपने नियत कालमें ही होती है इसे ही क्रमबद्ध या क्रमनियमित पर्याय कहते हैं / सर्वज्ञ स्वभावकी स्वीकृतिमें सर्वद्रव्योंकी क्रमबद्धपर्यायोंकी स्वीकृति भी अनिवार्य है क्योंकि क्रमबद्ध पर्यायके निषेधमें सर्वज्ञस्वभावके निषेध होनेका प्रसंग बनता है। इस सिद्धान्तको स्वीकारनेसे अनादि संसारका मूल जो विकल्पजाल है वह स्वयमेव विनष्ट होने लगता है, मुक्ति, होनहार, काललब्धिका परिपाक, पूर्णसुख प्राप्तिका अवसर इत्यादि सभी क्रमबद्धमें समीप आने लगते हैं तथा इसके अस्वीकारसे मुक्तिका मार्ग एवं मुक्ति दोनों क्रमबद्ध में अत्यन्त दूर रहते हैं / कर्तापनेका जहर उतरने लगता है तथा अकर्तापनेका अमृतपान का लाभ होता है। उपरोक्त विषयोंकी मीमांसाके अतिरिक्त सम्यकनियतिस्वरूपमीमांसा, निश्चय-व्यवहार मीमांसा, अनेकान्त-स्याद्वाद मीमांसा तथा केवलज्ञान स्वभावमीमांसा इन प्रकरणोंपर सूविशद, सुस्पष्ट विवेचनके साथ यह अनोखा ग्रंथ समाप्त होता है। सारांश-साररूपमें हम कह सकते हैं कि "जैनतत्त्वमीमांसा" तत्त्वसे अनभिज्ञ जनोंको ज्ञानप्रदाता, जिनागम अभ्यासियोंको मुक्तिमार्गप्रदर्शक, वस्तुस्वरूपके गूढ़तम-सिद्धान्तोंकी गुत्थियाँ सुलझानेवाला, विज्ञजनोंके हृदय कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला अद्वितीय, अजोड़, अमरकृति एवं पंडितजीके व्यक्तित्वका अमर स्मारक स्वरूप ग्रन्थ है / यदि जिनागम सागरके मंथनसे प्राप्त नवनीतका रसास्वादन करना हो, जिन प्रवचनोंका परमामृत चखना हो, दर्शनविशुद्धि पाकर मुक्तिमार्गमें गति करना हो तो प्रत्येक आत्मा के लिए 'जैनतत्त्व. मीमांसा' अवश्य ही सदाशयताके साथ, गम्भीरतापूर्वक, अध्ययन, मनन एवं हृदयंगम करने योग्य है 'इत्यलं सुविज्ञेषु / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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