Book Title: Jain tattva Mimansa Ek Samikshatmaka Adhyayan Author(s): Uttamchand Jain Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf View full book textPage 3
________________ ६३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ दोनोंको विषय करता है । साथ ही गौण मुख्य भावसे द्रव्य और पर्याय दोनोंको विषय करता है परन्तु मुख्यरूपसे इसका विषय उपचार है । देखिये जयधवला पु० १, पृ० २०१ । सामान्यतः कारणका लक्षण धवलाकार इस प्रकार किया है कि " जो जिसके होनेपर ही होता है, नहीं होनेपर नहीं होता । वह उसका कारण कहलाता है ।" देखिये घवला पुस्तक १२ पृ० २८९ । इससे स्पष्ट है कि कारण तथा कार्यमें अविनाभाव सम्बन्ध नियम रूपसे घटता है चाहे वह बाह्य साधन हो या अन्तरंग साधन । यद्यपि सहकारीकारण भिन्नद्रव्य है, भिन्नद्रव्यरूप सहकारी कारणके साथ एकद्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव है तथापि उनमें एककालप्रत्यासत्तिका सद्भाव होनेसे कारण कार्यभाव स्वीकार किया गया है । देखिये प्रमेयरत्नमाला अध्याय ३ सूत्र ६० की टीका । उपरोक्त कारण-कार्यपना परमार्थभूत नहीं है अपितु उपचरित मात्र है | उदाहरणार्थ - बुद्धिमान लोग ग्रहों तथा हस्तरेखाओं आदिसे आगामी घटनाओंका अनुमान कर लेते हैं । उसके वे ज्ञापक निमित्त हैं, उन होनेवाली घटनाओंके कारकनिमित्त नहीं हैं । इस तथ्यका समाधान घवला पु० ६, पृ० ४२३ के इस कथनसे होता है कि नारकियों को सम्यक्त्व की उत्पत्तिमें जो वेदना कारण होती है. वह वेदना ज्ञापक निमित्तमात्र है, कारक निमित्त नहीं । अन्यथा वेदना निमित्तसे सभी नारकियोंको नियमतः सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका प्रसंग बनेगा, जो असम्भव है । निश्चय उपादानं मीमांसा - निश्चय उपादान कारणका स्वरूप निर्देश आचार्य विद्यानन्दस्वामीने अपने ग्रन्थ अष्टसहस्रीमें इस प्रकार किया है कि जो द्रव्य तीनों कालोंमें अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ता हुआ पूर्वरूपसे और अपूर्वरूपसे वर्त रहा है, वह उपादान कारण है । इससे स्पष्ट है कि द्रव्यका न तो केवल सामान्य अंश उपादान कारण होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है किन्तु सामान्य विशेषात्मक द्रव्य ही निश्चय उपादान होता है । इस तथ्यका समर्थन आचार्य कार्तिकेयकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २२५ से २८ द्वारा होता है । इसी ग्रन्थमें गाथा २३० में स्पष्ट घोषणा की गई है कि अनन्तरपूर्व परिणामयुक्त द्रव्य ही कारणरूपसे प्रवर्तित होता है और अनन्तर उत्तर परिणामसे युक्त वही द्रव्य नियमसे कार्य होता है । उभयनिमित्त मीमांसा - इस प्रकरणमें यह बात स्पष्ट की गई है कि निश्चय उपादानकारण नियमसे कार्यका नियामक होता है तथा व्यवहार (निमित्त ) कारण उसका अविनाभावी बाह्य अनुकूल रूपमें उपस्थित होता है किन्तु व्यवहारकारण निश्चयका स्थान नहीं ले सकता । इन दोनोंमें विन्ध्यगिरि तथा हिमगिरि समान अन्तर है, क्योंकि निश्चयकारण कार्यरूपद्रव्यके स्वरूपमें अन्तर्निहित रहता है तथा व्यवहारकारण बाह्य वस्तु है | आचार्य समन्तभद्रस्वामीने तो घोषणा की है कि बाह्य ( निमित्त) तथा अन्तरंग ( उपादान) की सन्निधि में ही सभी कार्य होते हैं ऐसा वस्तुगत स्वभाव है, अन्य प्रकारसे वस्तुस्वभावकी सिद्धि नहीं होती, इसलिए आप ऋषियों तथा बुद्धिमानों द्वारा पूज्य हो । (देखिये स्वयंभू स्तोत्र पद्य ६०) उन्होंने यह भी कहा कि गुण-दोष रूप कार्यकी उत्पत्ति में जो भी बाह्यवस्तु कारण कही जाती है वह निमित्तमात्र है, उस कार्यकी उत्पत्तिका मूलहेतु तो अभ्यन्तर ( उपादान) ही है, इसलिए अध्यात्म मार्गी जनोंको वह अभ्यन्तर कारण ही पर्याप्त है अर्थात् निमित्ताधीन - पराधीन दृष्टिका परित्याग तथा उपादान - स्वाधीन दृष्टिके आश्रयमें ही कल्याण निहित होता है । अस्तु ! (देखिये स्वयंभूस्तोत्र ५९ ) । कर्तृकर्ममीमांसा - यह प्रकरण मोक्षमार्गीको सर्वाधिक महत्त्वका है कारण कि कर्ता-कर्म की भूल समस्त तत्त्वोंकी भूलोंकी मूल है । कर्त्ता कर्मकी भूल मिटनेपर समस्त भूलें मिट जाती हैं। जो स्वतंत्रपने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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