Book Title: Jain tattva Mimansa Ek Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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Page 2
________________ पंचम खण्ड : ६३३ मार्ग नहीं होता बल्कि जैसे-जैसे निश्चयमोक्षमार्गसे जीवन पुष्ट होता जाता है वैसे वैसे व्यवहार मोक्षमार्ग छूटता जाता है । उपर्युक्त तथ्योंके अतिरिक्त खांनिया तत्त्वचर्चाका संक्षिप्त इतिहास भी प्रस्तुत किया है । साथ ही यह भी स्पष्ट घोषणा की है कि जो विद्वान् वीतराग अर्हतकी आगम परम्पराको नहीं देखना चाहते, वे भट्टारक परंपराके समर्थनके साथ आम जनताका अपने पक्षपोषणार्थ दुरुपयोग करते हैं, निकृष्ट तरीकोंसे अध्यात्मके साहित्यका बहिष्कार करते हैं । अन्य कई प्रकारके षड्यंत्र रचकर अध्यात्मपक्ष पर अज्ञान आवरण डालने का प्रयास करते हैं, जो खेदकी बात है । इस प्रकार ग्रंथका आत्मनिवेदन अपने आपमें ग्रंथका हार्द एवं मर्म समाहित किये हुए है । वयोवृद्ध विद्वान् पं० श्रीमान् जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनीने प्राक्कथन लिखकर ग्रंथकी महत्ता पर स्पष्ट प्रकाश डाला है। साथ ही विद्वानोंको सावधान करते हुए दिशानिर्देशके रूपमें लिखा है कि विद्वान् केवल समाजके मुख नहीं हैं । वे आगमके रहस्योद्घाटन के जिम्मेदार हैं । अतः उन्हें हमारे अमुक वक्तव्यसे समाज में कैसी प्रतिक्रिया होती है, वह अनुकूल होती है या प्रतिकूल यह लक्ष्य में रखना जरूरी नहीं है। यदि उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सबसे बड़ा भय आगम का होना चाहिए। विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है, और यह तभी संभव है जब वे समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धांत के रहस्यको उसके सामने रख सकें । कार्य बड़ा है । इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिए उन्हें यह कार्य सब प्रकारकी मोह ममताको छोड़कर करना ही चाहिए । समाजका संधारण करना उनका मुख्य कार्य नहीं हैं।' ये शब्द सचमुच में विद्वानोंको प्रकाशस्तम्भ समान हैं । अस्तु । तत्पश्चात् विषयप्रवेश प्रकरणसे ग्रन्थारम्भ होता है । समग्र ग्रन्थ १२ अधिकारों में विभाजित है, जो इस प्रकार हैं - ( १ ) विषयप्रवेश, (२) वस्तुस्वभाव मीमांसा ( ३ ) बाह्यकारण मीमांसा, (४) निश्चय उपादानमीमांसा, (५) उभयनिमित्तंमीमांसा, (६) कर्तृकर्ममीमांसा ( ७ ) षट्कारकमीमांसा, (८) क्रमनियमित पर्याय - मीमांसा, (९) सम्यक् नियतिमीमांसा, (१०) निश्चय व्यवहारमीमांसा, (११) अनेकांत - स्याद्वादमीमांसा तथा (१२) केवलज्ञान स्वभाव मीमांसा । प्रत्येक अध्याय अपने-अपने नाम द्वारा अपने प्रतिपाद्य विषयकी घोषणा करता है । प्रत्येक अध्यायगत प्रतिपाद्य विषयका सारांश इस प्रकार है - आचार्य अकलंकदेवने आप्तमीमांसा पद्य ५ में वस्तुका स्वरूप उत्पाद व्यय तथा श्रीव्यात्मक अर्थात् त्रितयात्मक होता है' यह सिद्ध करते हुए एक उदाहरण दिया है कि स्वर्ण घटका इच्छुक एक मनुष्य स्वर्ण की घटपर्यायके नाश होनेपर दुःखी होता है, स्वर्ण मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य स्वर्णकी घटपर्यायके व्यय तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर हर्षित होता है और मात्र स्वर्ण ( द्रव्य) का इच्छुक तीसरा मनुष्य स्वर्णकी घट पर्यायके नाश तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्तिमें न तो दुःखी होता है और न ही हर्षित, किन्तु मध्यस्थ रहता है । इन तीन मनुष्योंके कार्य अहेतुक नहीं हो सकते । अतः सिद्ध है कि स्वर्णकी घट पर्यायके नाश तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी स्वर्णका न तो नाश होता है और न उत्पाद हो । स्वर्ण तो घट या मुकुट आदि अवस्था में स्वर्ण ही बना रहता है । यह वस्तुस्वभावकी मीमांसाका सार है । Satara मीमांसा दो दृष्टियोंसे की गई है प्रथम ऋजुसूत्रनय तथा द्वितीय नैगमनयकी दृष्टि । ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक नयोंमें प्रमुख है । वह एक समयवर्ती पर्यायको विषय करता है अतः इस नयकी अपेक्षा उत्पाद और व्यय दोनों निर्हेतुक होते हैं । यह नय पर सापेक्ष कथनको विषय नहीं करता । देखिये जयधवला पुस्तक १ पृ० २०६ -२०७ । नैगमनय द्रव्यार्थिक नयोंमें प्रमुख है । संकल्पप्रधान होनेसे यह नय सत्-असत् ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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