Book Title: Jain evam Masihi yoga Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Alerik Barlo Shivaji
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 3
________________ P" मर वावरत - तप समाधि और (सम्यगदृष्टि) ये चार योगाधि-कारियों के मन "तुलना विशेष के प्राचीन साहित्य, इस का प्रयोग यहां पर क्षयोपाशिका की सद्वस्तु के लिए काम में लिया जाता है योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रमाण में गीता एवं पांतजलि योग और योग शारीरिक क्रियाओं के रूप में, जिसमें मन, वचन और सूत्रों का उपयोग करके भी जैन परंपरा में विश्रुत ध्यान के विविध शरीर सम्मिलित हैं। भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है / अध्यात्मोपनिषद में चिन्तन आचार्य हरिभद्रसूरिने 'योगबिन्दु' 1/31 में योग के पांच करते हुए योगवाशिष्ठ और तैतरीय-उपनिषदों के महत्वपूर्ण उद्धरण सोपान अथवा स्तर बताये हैं - अध्यात्म, भाव, ध्यान, समता और देकर जैन - दर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में वृत्तिसंक्षय / इसके साथ ही योग के अधिकारी के रूप में चार पांतजल योग सूत्र में जो साधना का वर्णन है, उसका जैन दृष्टि से विभाग किये हैं . अपुनवर्धक, सम्यगदृष्टि, देश-विरति और विवेचन किया है और हरिभद्र के विशिका और षोडशक्ति ग्रन्थों सर्वविरति / पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर उसके रहस्यों को उद्घाटित किया है योग बिन्दु के संबंध में "भारतीय संस्कृति में एवं विशेषतः जैन धर्म में निम्नलिखित वर्णन पाया जाता है : जैन धर्म में समाधि की भी चर्चा है। समाधि का अर्थ चित्त की चंचलता पर नियंत्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / डॉ. "योगबिन्दु में 527 संस्कृत पद्यों में जैन योग का विस्तार से भागचंद्र जैन का कथन है कि नायाधम्म कहाओ (8.69) की प्ररूपण किया गया है। यहां मोक्ष व्यापक धर्म व्यापार को योग अभयदेव - टीका में समाधि का अर्थ चित्त - स्वास्थ्य किया गया और मोक्ष को ही लक्ष्य बताकर चरम पुद्गल परावर्त-काल में योग है / दशवैकालिक सूत्र (9-4-7-9) में समाधि मे दो भेद मिलते हैं की सम्भावना अपुनवर्धक, भिन्नग्रंथि, देशविरत और सर्वविरत - तप समाधि और आचार समाधि | कर्म क्षय के लिए किया गया (सम्यगदष्टि) ये चार योगाधि-कारियों के स्तरः पूजा-सदाचार-तप तप 'तप-समाधि' है और कर्म-क्षय के लिए किया गया आचार का आदि अनुष्ठान, अध्यात्म, भावना आदि योग के पांच भेद; विष, पालन 'आचार-समाधि' है। गरलादि पांच प्रकार के सद् वा असद् अनुष्ठान तथा आत्मा का स्वरूप परिणामी नित्य बतलाया है | पांतजल योग और बौद्ध सा जैन योग में कुंडलिनी के विषय में भी वर्णन किया गया है। सम्मत योग भूमिकाओं के साथ जैन योग की तुलना विशेष इस संबंध में 'श्री नथमलजी टाटिया का कथन है कि “जैन-परंपरा उल्लेखनीय है। के प्राचीन साहित्य में कुंडलिनी शब्द का प्रयोग नहीं मिलता / उत्तरवर्गी साहित्य में इस का प्रयोग मिलता है / आगम और उसके योगविंशिका में हरिभद्रसूरि ने योग को पांच प्रकार का व्याख्या साहित्य में कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है।" बतलाया है - (1) स्थान (2) उर्ण (3) अर्थ (4) आलम्बन (5) अनालम्बन / स्थान योग में कायोत्सर्ग, पर्यंक, पद्मासन आदि एक विशेष तथ्य, जो जैन धर्म में दिखाई पड़ता है, वह यह यंक. पद्मासन आदि है कि लौकिक फल आसन आते हैं / उर्ण में शब्द का उच्चारण, मंत्र-जप आदि का है कि लौकिक फल की प्राप्ति के लिए योग की साधना करना समावेश है / अर्थ में नेत्र आदि का वाच्यार्थ लिया जाता है। निन्दनाय समझा जाता हो। आलम्बन में, रूपी द्रव्य में मन को केन्द्रित करना होता है और मसीहीयोग अनालम्बन में चिन्मात्र समाधि रूप होता है / षोडशक ग्रंथ में हिन्दू संस्कृति में विश्वास किया जाता है कि मनुष्य योग 'हरिभद्रसूरि ने मस्तिष्क के प्राथमिक दोषों को बताया है, जिन को / द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है | भारतीय दर्शन के अनुसार योग पृथक् करना आवश्यक होता है / वे आठ हैं :- (1) जड़ता (2) आकुलता (3) अस्थिरता (4) विचलिता (4) भ्रांति (6) किसी मसीही शास्त्र, बाइबल यह बताती है कि डेनियल, यहकेकलयशय्याह, दूसरे को आकर्षित करना (7) मानसिक अशान्ति और संत पॉल और संत जॉन ने ईश्वर का दर्शन पाया था उनका (8) आसक्ति। प्रयास, उनका परिश्रम शारीरिक योगाभ्यास के द्वारा नहीं था / इस आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने योगशास्त्र में पांतजल योगसूत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मसीही योग भारतीय योग अष्टांग योग की तरह भ्रमण तथा श्रावक-जीवन की आचार से भिन्न प्रकार का है / वैसे योग न मसीही होता है, न बौद्ध, न साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है / इस जैन और न भारतीय / योग तो उस क्रिया का नाम है जिसका में आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है / पदस्थ, पिण्डस्थ, अभ्यास करने पर चिन्तन, मनन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन के है | संत पौलस इन शारीरिक क्रियाओं के बारे में जानता था और विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन - इन चार भेदों का भी इसी कारण वह लिखता है कि "शारीरिक योगाभ्यास के भाव से वर्णन किया है, जो आचार्यजी की अपनी मौलिक देन है / ' ज्ञान का लाभ तो है परन्तु शारीरिक, आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता लालसाओं को रोकने में इन से कुछ है / "ज्ञानार्णव" के सर्ग 29 से 42 तक में आपने प्राणायाम भी लाभ नहीं होता / "" योग से और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है / देहसाधना की जाती है, प्रवृत्तियों पर नियंत्रण किया जाता है किन्तु योगशास्त्र के विकास में यशोविजयजी का नाम भी उल्लेखनीय प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर है / उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद, योगावतार-बत्तीसी, को जानने के लिए पौलस स्पष्ट पांतजल योग सूत्रवृति, योग विशिका-टीका, योग दृष्टि नी सजझाय शब्दों में कहता है कि "क्योंकि देह आदि महत्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की है | अध्यात्मसार ग्रंथ के की साधना में कम लाभ होता है. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (94) पर की ताकत अन्त में, करे सदैव निराश / जयन्तसेन निजात्म बल, पाओ सत्य प्रकाश // www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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