Book Title: Jain evam Masihi yoga Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Alerik Barlo Shivaji
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 1
________________ THE T जैन एवं मसीही-योग : तुलनात्मक अध्ययन TIE की आ Trotuar foto. I&IR 6 חומוס בקריות 517 (डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी) PIR # DER FIR ST 所 单项 किश FRIES तुलनात्मक अध्ययन खतरे से खाली नहीं है क्योंकि मानव जब परिपूर्णता की ओर बढ़ता है तो अपने साथ वंशानुक्रम से प्राप्त संस्कारों को लेकर बढ़ता है और तुलनात्मक अध्ययन करने पर कभी-कभी उसके संस्कारों को आघात पहुंचता है फिर भी मानव प्रवृत्ति आरम्भ से ही ऐसी रही है कि वह अपने धर्म की अन्य धर्म से तुलना करता आया है और उत्तम विचारों को ग्रहण कर जीवन पथ पर आगे बढ़ता आया है। तुलनात्मक दृष्टि से किसी वस्तु अथवा विचार पर चिंतन करने पर एक तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी वस्तु अथवा विचार स्वयं में श्रेय अथवा अश्रेय, उचित अथवा अनुचित, सौंदर्ययुक्त अथवा असौंदर्ययुक्त नहीं होता किन्तु, मानव के चिन्तन का दृष्टिकोण उसे श्रेय अथवा अश्रेय, उचित अथवा अनुचित स्वीकार करने में सहायक होता है । उपरोक्त कथन के अनुसार जैनयोग, मसीही योग, पांतजलियोग, ज्ञान-योग, कर्मयोग, भक्तियोग नहीं होते हैं। मानव ने विभिन्न दृष्टियों से नामकरण का लेवल लगाने का कार्य किया है फिर भी मानव चिंतन, चिंतन है और वह जीवन शैली का निर्माण करता है कि स्वयं भी उस पथ पर चले और अन्य को भी चलने के लिए प्रेरित करें, इसी सन्दर्भ में हम जैन एवं मसीही योग का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करेंगे। जैनधर्म में योग जैन के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ उत्तराध्ययन (२९वें अध्याय) में यह बताया गया है कि शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्तियों का जो पूर्ण निरोध है, वह संबर है और वही योग है । वास्तव में यदि देखा जावे तो जैन धर्म में योग का विषय नीतिशास्त्र है । इसी कारण तत्वार्थ सूत्र में भी शरीर, मन एवं वाणी की क्रिया को योग कहा गया है (कायवाङ्मनः कर्मयोगः- तत्वार्थसूत्र ६ / १) । पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि "योग दर्शनकार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं, किन्तु जैनाचार्य समिति-गुप्ति स्वरूप उस धर्म व्यापार को योग कहते हैं, जो आत्मा के मोक्ष के साथ योग यानी सम्बन्ध कराता है ।" जैन धर्म में तपश्चर्या का स्थान अधिक है, जैसा कि डॉ. सम्पूर्णानन्द भी लिखते हैं इस सम्प्रदाय में योग की जगह तपश्चर्या को दी गई है ।"* श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण | Jain Education International - जैन-दर्शन में विशेषकर समाधियोग, ध्यानयोग, भावना योग आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु, जैनधर्म अथवा दर्शन में सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को महत्व दिया गया है । तत्वार्थ सूत्र १/१/१ में इन्हें मोक्ष मार्ग कहा गया है । सम्यक ज्ञान के अन्तर्गत वास्तविकरूप उजागर होता है, जिसमें (१) द्रव्यानुयोग (२) गणितानुयोग (३) चरणकरणानुयोग और (we) जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३, किरण २, वि. सं. १९९३, पृ. ५३ योग-दर्शन डॉ. सम्पूर्णा पू. २ E (४) धर्मकयानुयोग को लिया जाता है। सत्य के प्रति श्रद्धा की भावना रखना सम्यक दर्शन है, जो कि बौद्धिक आधार पर होता है । सम्यक् चरित्र मे मनुष्य पांच प्रकार के पापों हिंसा, असत्य, चोरी, दुष्चरित्रता और सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति से बच जाता है 'सम्यक् चरित्र के दो भेद हैं (१) संकुल जिसका । : व्यवहार सिर्फ मुनि करते हैं और (२) विकल जिसका व्यवहार गृहस्थ करते हैं। गृहस्थ पाप न करने का संकल्प करता है तथा कुछ अंशों में निवृत्त भी होता है किन्तु मुनि अपने संकल्प के अनुसार पूर्ण आचरण करता है । जैन-धर्म के ये तीन रत्न वास्तव में जैन धर्म की रीढ़ हैं और ये ही योग के साधन हैं हिन्दू धर्म में ज्ञान, कर्म और भक्ति में से कोई भी एक मार्ग मोक्ष के लिए यथेष्ट समझा जाता है किन्तु जैन धर्म में मोक्ष-लाभ के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों की आवश्यक मान्यता है | जैन धर्म दो प्रकार के साधक मानता है- (१) संसार साधक और जैन धर्म मे पंच महाव्रत का बहुत अधिक महत्व है । यह पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं। इनके अतिरिक्त कई छोटे-छोटे व्रत और तपस्याएं है । जैन अनुयायी योग को बारह तपस्याओं के समतुल्य देखते हैं, जिसमें छः बाह्य है और छः आंतरिक, बाह्य में प्रथम अनशन अथवा उपवास है, दूसरा है अनोदरी, जिसका अर्थ है, कम भोजन करना। तीसरा है भिक्षा चारिका या वृत्ति संक्षेप, जिस में जीवननिर्वाह के साधनों में संयम बढता जाता है। चौवा है रस-परित्याग, जिसमें सरस आहार का परित्याग किया जाता है। पांचवा है कायक्लेश, जिसमें शरीर को क्लेश दिया जाता है और छठवीं बाहय तपस्या है प्रति संलीनता, जिसमें इन्द्रियों को अपने विषय से हटाकर अंतर्मुखी किया जाता है । आन्तरिक तपस्या में प्रथम है प्रायश्चित्त, जिसमें पूर्वकृत कर्मों पर पश्चात्ताप किया जाता है। दूसरी आन्तरिक तपस्या है विनय अथवा नम्रता। तीसरी तपस्या है। - वैयावृत्य जिसमें दूसरों की सेवा करने की आत्मा होती है। चौथी तपस्या है - स्वाध्याय । पांचवीं तपस्या ध्यान है जिसके द्वारा चितवृत्तियों को स्थिर किया जाता है। ध्यान के विषय में आगे वर्णन किया जायेगा। अंतिम है व्युत्सर्ग, जिसके द्वारा शरीर की प्रवृत्तियों को रोका जाता है । इस प्रकार जैन धर्म की प्राचीन व्यवस्था में योग के द्वादशांग का रूप है। पातंजल योग की तरह यहां अष्टांग व्यवस्था नहीं है । (९२) by (1) free f ए संस्कृति के चार अध्याय- एवधारी सिंह 'दिनकर' पृ. १२१ ध्यान योग रूप और दर्शन सम्पादन डॉ. नरेन्द्र भानावत HOTE For Private & Personal Use Only दोष दृष्टि है स्वयं की, गुण दर्शन नहीं क्लेश । जयन्तसेन उपासना करता चित्त चकोर ॥ www.jainelibrary.org

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