Book Title: Jain evam Masihi yoga Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Alerik Barlo Shivaji
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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________________ (२) निर्वाण साधक । संसार साधक भौतिक साधनों को, ऐश्वर्य को प्राप्त करने की साधना करता है जब कि निर्वाण साधक की साधना कैवल्य प्राप्त करने हेतु होती है। इस स्थिति में जो ध्यान किया जाता है वह दो प्रकार का होता है (१) धर्मध्यान और (२) शुक्लध्यान । शुक्लध्यान के भी चार भेद हैं (१) पृथकृत्य वितर्क (२) एकत्व वितर्क (३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और (४) व्यपरत क्रिया निवृत्ति । वैसे जैन धर्म में ध्यान के चार भेद किये जाते हैं (१) आर्तं (२) रौद्र (३) धर्म (४) शुक्ल । पंडित कैलाश चंद्र शास्त्री इन ध्यानों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि आर्त और रौद्र को दुर्ध्यान कहते हैं और धर्म तथा शुक्ल को शुभ । इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग शारीरिक वेदना आदि आदि सांसारिक व्यथाओं को कष्ट जनक मानकर उनके दूर हो जाने के लिए जो संकल्प-विकल्प किये जाते हैं, उन्हें आर्तध्यान कहते हैं । जो प्राणी धर्म का सेवन करके उससे मिलने वाले ऐहलौकिक और पारलौकिक सुखों की कल्पना में तल्लीन रहता है, जैनधर्म में उसे भी आर्तध्यानी कहा गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांचों के सेवन में ही जिसे आनन्द आता है वह रौद्र ध्यानी कहा जाता है । धर्म से संबंधित बातों के सतत चिंतन को धर्मध्यान की संज्ञा दी गई है। इसके भेद हैं पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत शुक्ल ध्यान का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, जिसमें "प्रथम में वितर्क और विचार को पृथक अस्तित्व में देखना होता है, दूसरी स्थिति में दोनों को एकता के रूप में देखा जाता है, तीसरी स्थिति में केवल मानस की सूक्ष्म क्रियाएं रहती हैं और चौथी स्थिति में वे भी समाप्त हो जाती हैं ।" जैन धर्म की प्राचीन व्यवस्था के अन्तर्गत 'योग' शब्द के स्थान पर 'ध्यान' पर अधिक बल दिया गया है । दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रंथ में ध्यान का सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है। मुनिश्री नथमलजी "जैनयोग" की प्रस्तुति में लिखते हैं कि "जैनधर्म की साधना-पद्धति में अष्टांग योग के सभी अंगों की व्यवस्था नहीं है । प्राणायाम, धारणा और समाधि का स्पष्ट रूप स्वीकार नही है । यम, नियम, आसन, प्रत्याहार और ध्यान इनका योग दर्शन की भांति क्रमिक प्रतिपादन नहीं है। इसी कारण वैदिक युग से चली आ रही प्राणायाम की मान्यता को जैन साहित्य में समर्थन प्राप्त नहीं हुआ । हेमचन्द्र प्रभृति जैन दार्शनिकों ने प्राणायाम का निषेध ही किया है। योग की दृष्टि से विचार करने वाले आचार्यों में आचार्य हरिभद्रसूरि आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य शुभचन्द्र और उपाध्याय यशोविजयजी का नाम उल्लेखनीय है । आचार्य हरिभद्रसूरि की रचनाओं में योग-दृष्टि समुच्यय योग बिन्दु, डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी एम.ए., दर्शनशास्त्र, पी.एच.डी. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा अभिनन्दन ग्रंथों में पचास लेखों का प्रकाशन । तीन ग्रंथ प्रकाशित। सम्प्रति- २७, रवीन्द्रनगर, उज्जैन. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International योग विंशिका, योग शतक और षोडशक प्रमुख ग्रंथ हैं ।" आचार्य हेमचन्द्र का प्रसिद्ध ग्रंथ "योग शास्त्र हैं । शुभचन्द्रजी ने " ज्ञानार्णव" की रचना और यशोविजयजी के ग्रंथों में अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद, योगावतार बत्तीसी प्रमुख हैं। आचार्य हरिभद्रसूरिने ‘योग-दृष्टि समुच्यय' में ओघदृष्टि और योगदृष्टि पर चिंतन किया है । नथमल टाटिया उनकी पुस्तक 'Studies in Jaina Philosophy में लिखते हैं कि प्रमुख आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाएँ जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं, हरिभद्रसूरि के मतानुसार योग है। इस ग्रंथ में योगिक विकास के आठ स्तर बताये हैं । सबसे महत्व पूर्ण सम्पर्क दृष्टि है, जिसका आठ स्तरोंपर विभाजन किया है- (१) मित्रा (२) तारा (३) बल (४) दीप्ता (५) स्थिरता, (६) कान्ता (७) प्रभा (८) परा । ये आठ दृष्टिया हैं, जो कि पातंजल योगसूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से साम्य रखती हैं । दूसरा वर्गीकरण, जो हरिभद्रसूरिने किया है, वह है - इच्छा योग, शास्त्र योग, सामर्थ्य योग तथा तीसरा वर्गीकरण उन्होंने योगी के भेदों द्वारा किया है, वह है गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्त चक्रयोगी और सिद्धयोगी । 'योग दृष्टि समुच्चय' में योग के तीन प्रकार बताये गये हैं । उद्देश्य द्वारा योग, जिसके बारे में उन्होंने लिखा है : "कर्तुमिच्छो: श्रुतार्थस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । विकलो धर्मयोगो यः इच्छा योगः स उच्यते ॥ उपर्युक्त श्लोक द्वारा यह बताया गया है कि वह व्यक्ति, जो धर्मशास्त्र को सुनता है, उनके निर्देशों को जानता है और उसके अनुसार चलना चाहता है, इस योग को उद्देश्य द्वारा योग कहा जाता है। दूसरा प्रकार है धर्मशास्त्र द्वारा योग । इस संबंध में हरिभद्रसूरि का कथन है "शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः ' शास्त्रस्यतीव्रबोधेन वचसाऽविकहस्तया || अर्थात् वह व्यक्ति, जो शास्त्रों में श्रद्धा रखता हो और उसकी योग्यता के प्रति सचेत हो, धर्मशास्त्र को अच्छी तरह जानता हो और सब दोषों से मुक्त हो, उसे धर्म शास्त्र द्वारा योग कहा गया है । तीसरे प्रकार का योग है "स्वयं के परिश्रम द्वारा योग", जो सबसे उत्तम है । इस विषय पर आ हरिभद्रसूरिजी का कथन है - “शास्त्र संदर्शितोपायस्तदतिक्रांतगोचरः । शक्त्युद्रोदविशेषेण सामर्थ्याख्याऽययुत्तमः ॥" 'स्वयं के परिश्रम द्वारा योग दो प्रकार का है - (१) धर्म का सन्यास और (२) योग का सन्यास । धर्म (९३) For Private & Personal Use Only 100 संकट औरन का हरे, परहित वारे प्राण । जयन्तसेन ऐसा नर, जग में बडा महान । www.jainelibrary.org

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