Book Title: Jain Yoga aur uska Vaishishtya Author(s): Rammurti Tripathi Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ पंचम खण्ड / 248 का नाम तेजोलेश्या है। मुनिजी के अनुसार "अग्नि-ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पुद्गलों के योग से होने वाली चैतन्य परिणति का नाम तेजोलेश्या है।" (जैन-योग, पृ. 128) निस्संदेह दसवीं-ग्यारहवीं सदी में शक्ति लक्षण अागम साहित्य का प्रभाव सभी धर्मोंब्राह्मण, बौद्ध, जैन पर पड़ा है और "पाहड़ दोहा" (मूनि रामसिंह) आदि ग्रन्थों में शिवशक्ति शब्दों तक का प्रयोग हुआ है। "समयसार" में कहा है शोभित निज अनुभूति जत चिदानंद भगवान / सार पदारथ आतमा, सकल पदारथ जान // 1 // -(जीवद्वार) जो अपनी दुति आप विराजत, है परधान पदारथ नामी। चेतन अंक सदा निकलंक, महासुरन सागर को विसरामी। जीव अजीव जिते जग में तिनको गुनगायक अंतरजामी। सो सिवरूप नसै सिव थानक, ताहि विलोकि नमै सिवगामी // 2 // --(जीवद्वार) अथवा-जोग धरै रहै जोग सौं भिन्न, अनन्त गुनातम केवलज्ञानी // 3 // अर्थात् प्रात्मसत्ता को निज की चिदानंदमय अनुभूति होती रहती है-वह जगत्-सार भी है और जगत्-विश्व भी है। निम्नलिखित श्लोक तो नितान्त महत्त्व का है। जिसकी हिन्दी छाया ऊपर दी गई है अनन्तधर्मणस्तत्त्व पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः, अनेकान्तमयो मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् // परमसत्ता अनेकान्तमयी है—अनन्तधर्मी है-प्रात्मबोधमयी है-जो नित्य प्रकाशमय है। यह प्रकाशस्वरूप प्रात्मविमर्शमय है / आगमों में इसी विमर्शशक्ति को स्फुरता अथवा कुण्डलिनी कहा गया है। शांकर धारा में इसी विमर्शात्याशक्ति विशेष का अनुन्मीलन हैयहाँ उन्मीलन कहा गया है। कुण्डलिनी के इस प्रागमसम्मत स्वरूप से मुनि नथमलजी द्वारा निरूपित रूप कुछ भिन्न प्रतीत होता है। मुनिजी इसे चित्त-शक्ति कहते हैं और आगम चित शक्ति / विद्वज्जन इस विचार को और उसमें बढ़ा सकते हैं-मैंने तो केवल एक जिज्ञासा मात्र रखी है। -देवासरोड, उज्जैन (म. प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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