Book Title: Jain Yoga aur uska Vaishishtya Author(s): Rammurti Tripathi Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ जैन-योग और उसका वैशिष्ट्य O डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी जब विज्ञान की उपलब्धियां सार्वभौम होती हैं-देश काल निविशेष-तब अध्यात्मविज्ञान की उपलब्धि देशकाल या किसी भी "विशेष" से नियंत्रित किस प्रकार हो सकती है ? हां, उसकी प्रान्तरात्मिक प्रक्रिया-साधना अवश्य देश काल या धारा विशेष से नियंत्रित हो सकती है। "योग" एक प्रक्रिया है-माध्यम है-इसीलिए उसे धारा विशेष से जोड़कर विवेचित किया जाता है-और तब वह अनेक प्रकार का हो सकता है जैसे मार्कण्डेय प्रोक्त-हठयोग बौद्धों का षडंगयोग नाथपंथ प्रवर्तित-हठयोग पातञ्जलयोग तथा जैनयोग मैं यहाँ "जैन-योग" पर विचार करना चाहता हूँ। "योग" 'सम्बन्ध' का दूसरा नाम है-वह "प्र-केवल" है हमारी उपलब्धि "केवल" हो जाना है जो सम्बन्ध हैं-उनसे मुक्त हो जाना है। अनादिकाल प्रवाह से पायात जल-कल्प कषाय से सम्पक्त प्रात्मा परिवेश में व्याप्त कर्म और भाव पूदगलों से सम्बद्ध होकर अपना स्वरूप तिरोहित कर लेता है-इसी तिरोधान से प्रात्मा का अ-योग करने के लिए विशिष्ट "योग" अपेक्षित है। यह "विशिष्ट-योग" उस मलाधायक-योग का शत्रु है-विनाशक है। कांटे से ही काँटा निकाला जाता है-विशुद्ध आत्मा निरन्तर अपनी जगह है। एक साधक मुनि ने बहुत सही कहा है-"प्रयोग प्रयोग होता है और और योग योग होता है। वह न जैन होता है न बौद्ध और पातञ्जल । फिर भी व्यवहार ने कुछ रेखाएँ खींच दी-योग के प्रवाह को बाँध बना दिया और नाम रख दिया-जैन-योग, बौद्ध-योग, पातञ्जल-योग। पर इस सत्य को न भूलें-योग योग है-फिर उसका कोई भी नाम हो। गंतव्य "स्वभाव" या "कैवल्य" की उपलब्धि है-अयोग या आत्मा की स्वरूप प्रतिष्ठा है-पर तदर्थ मार्ग साधक की. रुचि और संस्कार के अनुरूप प्राचार्य निर्धारित करता हैइसलिए भारतीय धर्मसाधना में धारा-भेद से मार्गभेद होता है और होना भी चाहिए । अपने मार्ग से चलना ही चलना है। दूसरे का मार्ग भी "मार्ग" है पर वह "दूसरे" के लिए है-हर धारा के साधक को अपने ऊर्ध्वगामी संस्कार के अनुरूप "मार्ग" के प्रति प्रास्थावान और निष्ठावान होना चाहिए-वही उसे गंतव्य तक ले जा सकता है। अध्यात्ममार्ग के मर्मी सिद्धों का सही निर्णय है-प्रतः जहाँ एक दूसरे का विरोध दिखाई पड़ता हैवहाँ विरोध नहीं, अपने प्रति निष्ठा का प्रदर्शन है। जिनका सम्प्रदायबोध स्पष्ट हैवे "ऐसा" ही मानते हैं-पर जिनका सम्प्रदायबोध विकृत है, वह "वैसा" मानते हैं। आसनस्थ तन आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्तजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |Page Navigation
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