Book Title: Jain Yoga Udgam Vikas Vishleshan Tulna Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 4
________________ जैन योग : उद्गम, विकास, विश्लेषण, तुलना | ३५१ ०००००००००००० शRA ग AULI TIMES CHA बोध ज्योति की तरतमता की दृष्टि से उन्होंने इन आठ ६ दृष्टियों को क्रमशः तृण, गोमय व काष्ठ के अग्निकणों के प्रकाश, दीपक के प्रकाश तथा रत्न, तारे, सूर्य एवं चन्द्रमा की आभा से उपमित किया है। इन उपमानों से ज्योति का क्रमिक वैशद्य प्रकट होता है। यद्यपि इन आरम्भ की चार दृष्टियों का गुणस्थान प्रथम (मिथ्यात्व) है, पर क्रमशः उनमें आत्म-उत्कर्ष और मिथ्यात्व-अपकर्ष बढ़ता जाता है । गुणस्थान की शुद्धिमूलक प्रकर्ष-पराकाष्ठा-तद्गत उत्कर्ष की अन्तिम सीमा चौथी दृष्टि में प्राप्त होती हैं । अर्थात् मित्रा आदि चार दृष्टियों में उत्तरोत्तर मिथ्यात्व का परिमाण घटता जाता है और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होते आत्म-परिष्कार रूप गुण का परिमाण बढ़ता जाता है। यों चौथी दृष्टि में मिथ्यात्व की मात्रा कम से कम और शुद्धिमूलक गुण की मात्रा अधिक से अधिक होती है अर्थात् दीपा दृष्टि में कम से कम मिथ्यात्व वाला ऊँचे से ऊंचा गुणस्थान होता है। इसके बाद पांचवीं-स्थिरा दृष्टि में मिथ्यात्व का सर्वथा अभाव होता है। सम्यक्त्व प्रस्फुटित हो जाता है। साधक उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास-पथ पर बढ़ता जाता है । अन्तिम (आठवीं) दृष्टि में अन्तिम (चतुर्दश) गुणस्थान-आत्म-विकास की सर्वोत्कृष्ट स्थिति अयोग केवली के रूप में प्रकट होती है। इन उत्तरवर्ती चार दृष्टियों में योग-साधना का समग्ररूप समाहित हो जाता है। योगविशिका में योग की परिभाषा ___ आचार्य हरिभद्र ने प्राकृत में रचित योगविशिका नामक अपनी पुस्तक में योग की व्याख्या निम्नांकित रूप में की है मोक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेओ, ठाणाइगओ विसेसेण ॥१॥ संस्कृत छाया-मोक्षेण योजनातो योगः सर्वोपि धर्म-व्यापार: परिशुद्धो विज्ञ यः स्थानादिगतो विशेषेण ॥ हरिभद्र का आशय यह है कि यह सारा व्यापार-साधानोपक्रम, जो साधक को मोक्ष से जोड़ता है, योग है। उसका क्रम वे उसी पुस्तक की निम्नांकित गाथा में लिखते हैं ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ, तंतम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थ कम्मजोगो, तहा तियं नाणजोगो उ ॥२॥ संस्कृत छाया-स्थानोर्णालम्बन रहितस्तन्वेष पञ्चधा एषः । द्वयमत्र कर्मयोगस्तथा त्रयं ज्ञानयोगस्तु ।। स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और निरालम्बन योग के ये पाँच प्रकार हैं। इनमें पहले दो अर्थात् स्थान और ऊर्ण क्रिया योग के प्रकार हैं और बाकी के तीन ज्ञान योग के प्रकार हैं । स्थान का अर्थ-आसन, कायोत्सर्ग, ऊर्ण का अर्थ-आत्मा को योग-क्रिया में जोड़ते हुए प्रणब प्रभृति मन्त्रशब्दों का यथा विधि उच्चारण, अर्थ-ध्यान और समाधि आदि के प्रारम्भ में बोले जाने वाले मन्त्र आदि । तत्सम्बद्ध शास्त्र उनकी व्याख्याएँ-आदि में रहे परमार्थ एवं रहस्य का अनुचिन्तन, आलम्बन-बाह्य प्रतीक का आलम्बन लेकर ध्यान करना, निरालम्बन-मूर्तद्रव्य बाह्य प्रतीक के आलम्बन के बिना निर्विकल्प, चिन्मात्र, सच्चिदानन्दस्वरूप का ध्यान करना। हरिभद्र द्वारा योग विशिका में दिये गये इस विशेष क्रम के सम्बन्ध में यह इंगित मात्र है, जिस पर विशद गवेषणा की आवश्यकता है। जैन वाडमय में योग-साधना के रूप : आचार्य हेमचन्द्र प्रभूति विद्वानों की देन आचार्य हेमचन्द्र ने योग की परिभाषा निम्नांकित रूप से की है चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥ हरिभद्र A -. '.udelPage Navigation
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