Book Title: Jain Yoga Udgam Vikas Vishleshan Tulna Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 1
________________ ----0----0--0-0--0--0--0--0-0--0--0--0--0--0--0-2 विद्यामहोदधि डा० छगनलाल शास्त्री [एम० ए०, हिन्दी, संस्कृत व जैनोलोजी, स्वर्णपदक समाहृत, पी-एच. डी० काव्यतीर्थ] ०००००००००००० ०००००००००००० साधक का साध्य-मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति का उपायसाधन-योग है। प्रात्मा से परमात्मा के रूप में मिलन की प्रक्रिया (-योग) पर जैन मनीषियों के चिन्तन का I तुलनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है। -o-0--0--0-0-0-0-0--0--0--0--0-0--0-0-0-0-o-S जैन योग : उद्गम, विकास, विश्लेषण, तुलना चरम ध्येय भारतीय दर्शनों का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। दु:खों की ऐकान्तिक तथा आत्यन्तिक निवृत्ति को मोक्ष कहा गया है । मोक्ष शब्द, जिसका अर्थ छुटकारा है, से यह स्पष्ट है । यदि गहराई में जायें तो इसकी व्याख्या में थोड़ा अन्तर भी रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । कुछ दार्शनिकों ने दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति के स्थान पर शाश्वत तथा सहज सुखलाभ को मोक्ष कहा है। इस प्रकार के सुख की प्राप्ति होने पर दुःखों की आत्यन्तिक और ऐकान्तिक निवृत्ति स्वयं सध जाती है। वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग और बौद्ध दर्शन प्रथम पक्ष के समर्थक हैं और वेदान्त तथा जैन दर्शन दूसरे पक्ष के । वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को सच्चिदानन्द-स्वरूप माना है, इसलिए अविद्यावच्छिन्न ब्रह्म-जीव में अविद्या के नाश द्वारा नित्यसुख की अभिव्यक्ति ही मोक्ष है। जैन दर्शन में भी आत्मा को अनन्त सुख-स्वरूप माना है, अतः स्वाभाविक सुख की अभिव्यक्ति ही उसका अभिप्रेत है, जो उसका मोक्ष के रूप में अन्तिम लक्ष्य है। ध्येय : साधना-पथ मोक्ष प्राप्ति के लिए विभिन्न दर्शनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से ज्ञान, चिन्तन, मनन, अनुशीलन, निदिध्यासन, तदनुकूल आचरण या साधना आदि के रूप में एक व्यवस्था-क्रम दिया है, जिसका अपना-अपना महत्त्व है। उनमें महर्षि पतञ्जलि का योग दर्शन एक ऐसा क्रम देता है, जिसकी साधना या अभ्यास-सरणि बहुत ही प्रेरक और उपयोगी है। यही कारण है, योग मार्ग को सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि के अतिरिक्त अन्यान्य दर्शनों ने भी बहुत कुछ स्वीकार किया है । यों कहना अतिरंजन नहीं होगा कि किसी न किसी रूप में सभी प्रकार के साधकों ने योग निरूपित अभ्यास का अपनी अपनी परम्परा, बुद्धि, रुचि और शक्ति के अनुरूप अनुसरण किया है, जो भारतीय संस्कृति और विचार-दर्शन के समन्वयमूलक झुकाव का परिचायक है। जैन परम्परा और योग-साहित्य भारतीय चिन्तन-धारा वैदिक, बौद्ध और जैन वाङमय की त्रिवेणी के रूप में बही है । वैदिक ऋषियों, बौद्धमनीषियों, जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने अपनी निःसंग साधना के फलस्वरूप ज्ञान के वे दिव्यरत्न दिये हैं, जिनकी आमा कभी धुंधली नहीं होगी। तीनों ही परम्पराओं में योग जैसे महत्त्वपूर्ण, व्यावहारिक और विकास प्रक्रिया से सम्बद्ध विषय पर उत्कृष्ट कोटि का साहित्य रचा गया । यद्यपि बौद्धों की धार्मिक भाषा पालि, जो मागधी प्राकृत का एक रूप है तथा जैनों की धार्मिक भाषा अर्द्धमागधी' और शौरसेनी प्राकृत रही है पर दोनों का लगभग सारा का सारा दर्शन सम्बन्धी साहित्य संस्कृत में लिखा ADI 圖圖圖圖区 Jain Education International For Private & Personal use only wwajammemorary.orgPage Navigation
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