Book Title: Jain Yoga Udgam Vikas Vishleshan Tulna Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 7
________________ ३५४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० 000000000000 NER .... SATARAI MOUN . HIND नहीं । वस्तुतः ये हठयोग के ही मुख्य अंग हो गये। (लगभग छठी शती के पश्चात्) भारत में एक ऐसा समय आया, जब हठयोग का अत्यन्त प्राधान्य हो गया । वह केवल साधन नहीं रहा, साध्य बन गया । तभी तो हम देखते हैं, घेरण्डसंहिता में आसनों को चौरासी से लेकर चौरासी लाख तक पहुंचा दिया गया । हठयोग की अतिरंजित स्थिति का खण्डन करते हुए योगवासिष्ठकार ने लिखा है इस प्रकार की (चिन्तन-मननात्मक) युक्तियों-उपायों के होते हुए भी जो हठयोग द्वारा अपने मन को नियन्त्रित करना चाहते हैं, वे मानो दीपक को छोड़कर (काले) अंजन से अन्धकार को नष्ट करना चाहते हैं। जो मूढ हठयोग द्वारा अपने चित्त को जीतने के लिए उद्यत हैं, वे मानो मृणाल-तन्तु से पागल हाथी को बाँध लेना चाहते हैं।"१२ आचार्य हेमचन्द्र और शुभचन्द्र ने प्राणायाम का जो विस्तृत वर्णन किया है, वह हठयोग-परम्परा से प्रभावित . प्रतीत होता है। भाव-प्राणायाम कुछ जैन विद्वानों ने प्राणायाम को भाव-प्राणायाम के रूप में नई शैली से व्याख्यात किया है। उनके अनुसार बाह्य भाव का त्याग-रेचक, अन्तर्भाव की पूर्णता-पूरक तथा समभाव में स्थिरता कुम्भक है। श्वास प्रश्वास मूलक अभ्यास-क्रम को उन्होंने द्रव्य (बाह्य) प्राणायाम कहा । द्रव्य-प्राणायाम की अपेक्षा भाव-प्राणायाम आत्म-दृष्ट्या अधिक उपयोगी है, ऐसा उनका अभिमत था। प्रत्याहार महर्षि पतञ्जलि ने प्रत्याहार की व्याख्या करते हुए लिखा है ''अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार-सा हो जाना प्रत्याहार है।"१३ जैन-परम्परा में निरूपित प्रतिसंलीनता को प्रत्याहार के समकक्ष रखा जा सकता है। प्रतिसंलीनता जैन बाङ्मय का अपना पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना । दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य अप्रशान्त से अपने को हटाकर प्रशस्त की ओर प्रयाण करना है। प्रतिसंलीनता के निम्नांकित चार भेद हैं १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय-संयम । २. मनः प्रतिसंलीनता-मनः-संयम । ३. कषाय-प्रतिसंलीनता-कषाय-संयम । ४. उपकरण-प्रतिसंलीनता-उपकरण-संयम । स्थूल रूपेण प्रत्याहार तथा प्रतिसंलीनता में काफी दूर तक समन्वय प्रतीत होता है। पर दोनों के आभ्यन्तर रूप की सूक्ष्म गवेषणा अपेक्षित है, जिससे तद्गत तत्त्वों का साम्य, सामीप्य अथवा पार्थक्य आदि स्पष्ट हो सकें। औपपातिक सूत्र बाह्य तप अधिकार तथा व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र (२५-७-७) आदि में प्रतिसंलीनता का विवेचन है। नियुक्ति, चूणि तथा टीका-साहित्य में इसका विस्तार है । धारणा, ध्यान, समाधि धारणा, ध्यान, समाधि-ये योग के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हैं। पातञ्जल व जैन-दोनों योग-परम्पराओं में ये नाम समान रूप में प्राप्त होते हैं । आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वानों ने अपनी-अपनी शैली द्वारा इनका विवेचन किया है। धारणा के अर्थ में एकाग्र मनःसन्निवेशना शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । धारणा आदि इन तीन अंगों का अत्यधिक महत्त्व इसलिए है कि योगी इन्हीं के सहारे उत्तरोत्तर दैहिकता से छूटता हुआ आत्मोत्कर्ष की उन्नत भूमिका पर आरुढ़ 300 SABAR Na Jauuucारमा wwwgamePage Navigation
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