Book Title: Jain Yog me Kundalini Author(s): Nathmalmuni Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ स्थानांग सत्र में तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत देख पाते। उसके सहायक परमाण-पूगल सूक्ष्मदृष्टि से बतलाए हैं12-- देखे जा सकते हैं। ध्यान करनेवालों को उनका यत्1. आतापना-सूर्य के ताप को सहना / किंचित आभास होता रहता है। . 2. क्षांतिक्षमा--समर्थ होते हए भी क्रोध-निग्रह तेजोलेश्या और प्राण पूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन तेजोलेश्या एक प्राणधारा है। किन्तु प्राणधारा करना। और तेजोलेश्या एक ही नहीं है। हमारे शरीर में अनेक 3. जल पिए बिना तपस्या करना / प्राणधाराएँ हैं। इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है। मन, वाणी और शरीर की अपनी प्राणधारा है। . इनमें केवल क्षांतोक्षमा नया है। शेष दो उसी विधि / श्वास-प्रश्वास और जीवन शक्ति की भी स्वतन्त्र प्राणके अंग हैं जो विधि महावीर ने गोशालक को सिखाई। धाराएँ हैं। हमारे चैतन्य का जिस प्रवत्ति के साथ थी / तेजोलेश्या के निग्रह-अनुग्रह स्वरूप के विकास के योग होता है वहीं प्राणधारा बन जाती है। इसलिए स्रोतों की यह संक्षिप्त जानकारी है। उसका जो सभी प्राणधाराएँ तेजोलेश्या नहीं हैं। तेजोलेश्या एक आनन्दात्मक स्वरूप है उसके विकास-स्रोत भावात्मक प्राणधारा है। इन प्राणधाराओं के आधार पर शरीर तेजोलेश्या की अवस्था में होनेवाली चित्तवृत्तियाँ हैं। की क्रियाओं और विद्यत-आकर्षण के संबंध का अध्ययन चित्तवत्तियों की निर्मलता के बिना तेजोलेश्या के विकास किया जा सकता है। का प्रयत्न खतरों को निमंत्रित करने का प्रयत्न है। वे प्राण की सक्रियता से मनुष्य के मन में अनेक खतरे शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक--तीनों प्रकार की वृत्तियाँ उठती हैं और जब तक तेजोलेश्या प्रकार के हो सकते हैं। के आनन्दात्मक स्वरूप का विकास नहीं होता तब तक तेजोलेश्या का स्थान वे उठती ही रहती हैं। कुछ लोग वायु-संयम से उन्हें तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता रोकने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके निरोध का एक है। फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं--मस्तिष्क और उपाय अवश्य है। किन्तु वायु-संयम (या कमक) एक नाभि का पृष्टभाग / मन और शरीर के बीच सबसे कठिन साधना है / उसमें बहुत सावधानी बरतनी होती बड़ा सम्बन्ध-सेतु मस्तिष्क है। उससे तेजस शक्ति है। कहीं थोड़ी-सी असावधानी हो जाती है अथवा (प्राणशक्ति या विद्युतशक्ति) निकलकर शरीर की सारी योग्य गुरू का पथ-दर्शन न हो तो कठिनाइयाँ और बढ़ क्रियाओं का संचालन करती है। नाभि के पष्ठभाग में जाती हैं। मन: संयम से चित्त वृत्तियों का निरोध करना खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता निर्विघ्न मार्ग है। इसकी साधना कठिन है, पर यह है / अतः शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का उसका सर्वोत्तम उपाय है / प्रेक्षा ध्यान के द्वारा उसकी पृष्ठभाग ये दोनों तेजोलेश्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन कठिनता को मिटाया जा सकता है। चित्त की प्रेक्षा जाते हैं / यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। उसे हम नहीं चित्तवृत्तियों के निरोध का महत्वपूर्ण उपाय है। 12. ठाण 3 / 386 : तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गथे संखितविउलतेउलेस्से भवति, तेजहा-आयाबणताए, खंतिखमाए, अपाणगेण तवोकम्मेणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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