Book Title: Jain Yog me Kundalini
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 3
________________ लेश्या को उपलब्ध होता है कि जिससे उत्कृष्टतम बालसूर्य या प्रदीपशिखा के समान लाल होता है। भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है। उसका रस पके हुए आम के फल के रस से अत्यधिक उसे इतना सहज सुख प्राप्त होता है जो किसी भी मधुर होता है। उसकी गंध सुरभि कुसुम से अत्यधिक भौतिक पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता। सुखद होती है। उसका स्पर्श नवनीत या सिरीष कुसुम . तेजोलेश्या के दो रूप से भी अत्यधिक मृदु होता है । हम चैतन्य और परमारगु-पुद्गल - दोनों को साथ तेजोलेश्या का विकास साथ जी रहे हैं। हमारा जगत् न केवल चैतन्य का जगत् है और न केवल परमाणु-पुद्गल का। दोनों के तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं संयोग का जगत है। चैतन्य की शक्ति से परमाणु है । उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता पुद्गल सक्रिय होते हैं और परमाणु-पुद्गलों की सक्रि है । संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति उपासना, तपस्या आदियता से चैतन्य की उनके अनुरूप परिणति होती है। आदि उसके विकास के स्रोत हैं। इन विकास-स्रोतों की इस नियम के आधार पर तेजोलेश्या के दो रूप बनते पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । भावात्मक तेजो होती। यह जानकारी आचार्य शिष्य को स्वयं देता था। लेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चितशक्ति है। गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा---'भंते ! तेजोतेजोलेश्यावाले व्यक्ति का चित्त नम्र, अचपल लेश्या का बिकास कैसे हो सकता है ?' भगवान् ने और ऋजु हो जाता है । उसके मन में कोई कुतूहल नहीं इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का होता। उसकी इन्द्रियाँ सहज शान्त हो जाती हैं। वह ज्ञान कराया। उन्होंने कहा--'जो साधक निरंतर दो-दो योगी (समाधि-सम्पन्न) और तपस्वी होता है। उसे । उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठी भर उड़द या धर्म प्रिय होता है। वह धर्म का कभी अतिक्रमण नहीं मग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं करता। को ऊँचा कर सर्य की आतापना लेता है वह छह पुद्गलात्मक तेजोलेश्या के वर्ण, गंध, रस और महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता स्पर्श विशिष्ट प्रकार के होते हैं। उसका वर्ण हिंगूल, है।1 9. 10. - एयजाणत भगवई १४।१३६ । उत्तरज्झयणाणि ३४।२७, २८ : नीयावित्ती अचवले, अमाई अकूऊहले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ।। पियधम्मे दढघम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ।। भगवई १५॥६६, ७० : तए णं से गोसाले मंखलिपत्ते ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कहण्णं भते । सखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासीजेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्भासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़ढ़ बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सुराभिमूहे. आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ । से गं अंतो छण्ह मासाणं संतिविउलतेयलेस्से भवद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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