Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन योग में कँडलिनी
० मुनि श्री नथमल
योग की उपयोगिता जैसे-जैसे वढती जा रही है है। अग्नि ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पदगलों के वैसे-वैसे उस विषय में जिज्ञासाएँ भी बढ़ती जा रही हैं। योग से होने वाली चैतन्य की परिणति का नाम तेजोयोग की चर्चा में कुडलिनी का सर्वोपरि महत्व है। लेश्या है। यह तप की विभूति से होनेवाली तेजस्विता बहुत लोग पूछते हैं कि जैन योग में कूडलिनी सम्मत है। है या नहीं? यदि वह एक वास्तविकता है तो फिर कोई भी योग-परंपरा उसे अस्वीकृत कैसे कर सकती
हम शरीरधारी हैं । हमारे शरीर दो प्रकार के है ? वह कोई सैद्धान्तिक मान्यता नहीं है किन्तु एक
हैं---स्थूल और सूक्ष्म । हमारा अस्थि-चर्ममय शरीर
स्थूल है। तैजस और कर्म-ये दो शरीर सक्षम हैं । यथार्थ शक्ति है। उसे अस्वीकृत करने का प्रश्न ही नहीं
हमारी सक्रियता, तेजस्विता और पाचन का मुल हो सकता।
तैजस शरीर है । वह स्थूल शरीर के भीतर रहकर जैन परम्परा के प्राचीन साहित्य में कूडलिनी दीप्ति या तेजस्विता उत्पन्न करता रहता है। साधना के शब्द का प्रायोग नहीं मिलता । उत्तरवर्ती साहित्य में द्वारा उसकी शक्ति विकसित करली जाती है। तब इसका प्रयोग मिलता है। वह तंत्रशास्त्र और हठयोग उसमें निग्रह और अनुग्रह की क्षमता उत्पन्न हो जाती का प्रभाव है। आगम और उसके व्याख्या साहित्य में है। इस शक्ति का नाम तेजोलब्धि है। यह तेजस शक्ति कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है। इसे इस प्रकार भी उष्ण और शीत-दोनों प्रकार की होती है । उष्ण कहा जा सकता है कि हठयोग में कुडलिनी का जो तेजोलब्धि के प्रहार को शीतल-तेजोलब्धि निष्फल बना नर्णन है, उसकी तेजोलेश्या से तुलना की जा सकती देती है। बालतपस्वी वैश्यायन से गोशालक को जलाने के
1.
ठाणं १११६४, वृत्ति पत्र २६: तेज-अग्निज्वाला, तद वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानी त्यर्थः, तत्साचिव्याज्जाता तेजोलेश्या, शुभस्वभावा।
८७
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिए उष्ण-तेजोलब्धि का प्रयोग किया तब महावीर ने शीतल-तेजोलब्धि का प्रयोग कर उसे निष्फल बना दिया । गोशालक ने महावीर से पूछा- 'भंते ! यह तेजोलेश्या कैसे प्राप्त की जा सकती है ?' तब भगवान् ने उसे उपलब्ध करने की साधना बतलाई । उसकी चर्चा हम आगे करेंगे। वह तेजोलेश्या अप्रयोगकाल में संक्षिप्त और प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है । "
वह विपुल अवस्था में सूर्य-बिम्ब के समान दुर्दर्श होती है' - इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि आदमी उसे खुली आँखों से देख नहीं सकता । यही तथ्य हठयोग में 'सूर्यकोटिसमपुत्रम्' इस वाक्य के द्वारा व्यक्त किया गया हैं । तेजोलब्धि का प्रयोग करनेवाला जब अपनी इस तेजस शक्ति को बाहर फेंकता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है ।" तैजस शरीर की शक्ति के दो कार्य हैं- दाह (शाप या निग्रह) और अनुग्रह । तैजस शरीर दो प्रकार का होता है - स्वाभाविक और लब्धिहेतुक | स्वाभाविक तैजस शरीर
2. भगवई १५६६, वृत्ति पत्र ६६ :
3.
4.
5.
6.
7.
8.
सबको प्राप्त होता है । तपो विशेष या विशेष प्रकार की साधना करनेवाले व्यक्ति को लब्धिहेतुक तेजस शरीर उपलब्ध होता है ।" जिसे लब्धिहेतुक तैजस शरीर प्राप्त होता है वह क्रुद्ध होने पर अपनी तेजस शक्ति को बाहर निकालता है और लक्ष्य को शाक-भाजी की तरह पका देता है । वह शक्ति अपना काम कर फिर लौट आती है, फिर उसी में समाहित हो जाती है। यदि वह शक्ति बहुत समय तक बाहर ठहरती है तो उस लक्ष्य को जलाकर भस्म कर डालती है/ 17 तेजस शरीर की विकसित अवस्था का नाम तेजोलेश्या या तेजोलब्धि है और उसके प्रयोग का नाम तैजस समुद्घात है ।
संक्षिप्त प्रयोगकाले, विपुला प्रयोगकाले ।
ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ :
विपुलापि - विस्तीर्णापि सती अन्यथा आदित्यविम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति ।
ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ :
तेजोलेश्या - तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं, तैजसशरीर - परिणतिरूप महाज्वालाकल्पम् ।
तत्त्वार्थवार्तिक २४६, पृष्ठ १५४ :
तेजसस्य सामर्थ्य कोपप्रसादापेक्षं दाहानुग्रहरूपम् ।
तत्वार्थ २४८
जो साधना के द्वारा तेजोलेश्या' को प्राप्त कर लेता है वह सहज आनन्द की अनुभूति में चला जाता है । इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा की सहज निवृत्ति हो जाती है । इसीलिए इस अवस्था को 'सुखासिका' (सुख में रहना) कहा जाता है ।" विशिष्ट ध्यानयोग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजो
तत्वार्थवार्तिक २०४६, पृष्ठ १५३ :
यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्र ुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्त बहिर्निष्क्रम्य दाह्य परिवृत्याबतिष्ठमानं निष्पावहरितपरि पूर्णां स्थालीमग्निरिव पचति पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति ।
भगवई १४ । १३६, वृत्ति पत्र ६५७ :
तेजोलेश्यां – सुखासिकां, तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचा रात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति ।
८८
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेश्या को उपलब्ध होता है कि जिससे उत्कृष्टतम बालसूर्य या प्रदीपशिखा के समान लाल होता है। भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है। उसका रस पके हुए आम के फल के रस से अत्यधिक उसे इतना सहज सुख प्राप्त होता है जो किसी भी मधुर होता है। उसकी गंध सुरभि कुसुम से अत्यधिक भौतिक पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता।
सुखद होती है। उसका स्पर्श नवनीत या सिरीष कुसुम . तेजोलेश्या के दो रूप
से भी अत्यधिक मृदु होता है । हम चैतन्य और परमारगु-पुद्गल - दोनों को साथ
तेजोलेश्या का विकास साथ जी रहे हैं। हमारा जगत् न केवल चैतन्य का जगत् है और न केवल परमाणु-पुद्गल का। दोनों के
तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं संयोग का जगत है। चैतन्य की शक्ति से परमाणु
है । उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता पुद्गल सक्रिय होते हैं और परमाणु-पुद्गलों की सक्रि
है । संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति उपासना, तपस्या आदियता से चैतन्य की उनके अनुरूप परिणति होती है।
आदि उसके विकास के स्रोत हैं। इन विकास-स्रोतों की इस नियम के आधार पर तेजोलेश्या के दो रूप बनते
पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । भावात्मक तेजो
होती। यह जानकारी आचार्य शिष्य को स्वयं देता था। लेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चितशक्ति है।
गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा---'भंते ! तेजोतेजोलेश्यावाले व्यक्ति का चित्त नम्र, अचपल
लेश्या का बिकास कैसे हो सकता है ?' भगवान् ने और ऋजु हो जाता है । उसके मन में कोई कुतूहल नहीं
इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का होता। उसकी इन्द्रियाँ सहज शान्त हो जाती हैं। वह
ज्ञान कराया। उन्होंने कहा--'जो साधक निरंतर दो-दो योगी (समाधि-सम्पन्न) और तपस्वी होता है। उसे ।
उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठी भर उड़द या धर्म प्रिय होता है। वह धर्म का कभी अतिक्रमण नहीं मग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं करता।
को ऊँचा कर सर्य की आतापना लेता है वह छह पुद्गलात्मक तेजोलेश्या के वर्ण, गंध, रस और महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता स्पर्श विशिष्ट प्रकार के होते हैं। उसका वर्ण हिंगूल, है।1
9. 10.
-
एयजाणत
भगवई १४।१३६ । उत्तरज्झयणाणि ३४।२७, २८ :
नीयावित्ती अचवले, अमाई अकूऊहले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ।। पियधम्मे दढघम्मे, वज्जभीरू हिएसए।
एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ।। भगवई १५॥६६, ७० : तए णं से गोसाले मंखलिपत्ते ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कहण्णं भते । सखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासीजेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्भासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़ढ़ बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सुराभिमूहे. आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ । से गं अंतो छण्ह मासाणं संतिविउलतेयलेस्से भवद ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ स्थानांग सत्र में तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत देख पाते। उसके सहायक परमाण-पूगल सूक्ष्मदृष्टि से बतलाए हैं12-- देखे जा सकते हैं। ध्यान करनेवालों को उनका यत्1. आतापना-सूर्य के ताप को सहना / किंचित आभास होता रहता है। . 2. क्षांतिक्षमा--समर्थ होते हए भी क्रोध-निग्रह तेजोलेश्या और प्राण पूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन तेजोलेश्या एक प्राणधारा है। किन्तु प्राणधारा करना। और तेजोलेश्या एक ही नहीं है। हमारे शरीर में अनेक 3. जल पिए बिना तपस्या करना / प्राणधाराएँ हैं। इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है। मन, वाणी और शरीर की अपनी प्राणधारा है। . इनमें केवल क्षांतोक्षमा नया है। शेष दो उसी विधि / श्वास-प्रश्वास और जीवन शक्ति की भी स्वतन्त्र प्राणके अंग हैं जो विधि महावीर ने गोशालक को सिखाई। धाराएँ हैं। हमारे चैतन्य का जिस प्रवत्ति के साथ थी / तेजोलेश्या के निग्रह-अनुग्रह स्वरूप के विकास के योग होता है वहीं प्राणधारा बन जाती है। इसलिए स्रोतों की यह संक्षिप्त जानकारी है। उसका जो सभी प्राणधाराएँ तेजोलेश्या नहीं हैं। तेजोलेश्या एक आनन्दात्मक स्वरूप है उसके विकास-स्रोत भावात्मक प्राणधारा है। इन प्राणधाराओं के आधार पर शरीर तेजोलेश्या की अवस्था में होनेवाली चित्तवृत्तियाँ हैं। की क्रियाओं और विद्यत-आकर्षण के संबंध का अध्ययन चित्तवत्तियों की निर्मलता के बिना तेजोलेश्या के विकास किया जा सकता है। का प्रयत्न खतरों को निमंत्रित करने का प्रयत्न है। वे प्राण की सक्रियता से मनुष्य के मन में अनेक खतरे शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक--तीनों प्रकार की वृत्तियाँ उठती हैं और जब तक तेजोलेश्या प्रकार के हो सकते हैं। के आनन्दात्मक स्वरूप का विकास नहीं होता तब तक तेजोलेश्या का स्थान वे उठती ही रहती हैं। कुछ लोग वायु-संयम से उन्हें तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता रोकने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके निरोध का एक है। फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं--मस्तिष्क और उपाय अवश्य है। किन्तु वायु-संयम (या कमक) एक नाभि का पृष्टभाग / मन और शरीर के बीच सबसे कठिन साधना है / उसमें बहुत सावधानी बरतनी होती बड़ा सम्बन्ध-सेतु मस्तिष्क है। उससे तेजस शक्ति है। कहीं थोड़ी-सी असावधानी हो जाती है अथवा (प्राणशक्ति या विद्युतशक्ति) निकलकर शरीर की सारी योग्य गुरू का पथ-दर्शन न हो तो कठिनाइयाँ और बढ़ क्रियाओं का संचालन करती है। नाभि के पष्ठभाग में जाती हैं। मन: संयम से चित्त वृत्तियों का निरोध करना खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता निर्विघ्न मार्ग है। इसकी साधना कठिन है, पर यह है / अतः शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का उसका सर्वोत्तम उपाय है / प्रेक्षा ध्यान के द्वारा उसकी पृष्ठभाग ये दोनों तेजोलेश्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन कठिनता को मिटाया जा सकता है। चित्त की प्रेक्षा जाते हैं / यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। उसे हम नहीं चित्तवृत्तियों के निरोध का महत्वपूर्ण उपाय है। 12. ठाण 3 / 386 : तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गथे संखितविउलतेउलेस्से भवति, तेजहा-आयाबणताए, खंतिखमाए, अपाणगेण तवोकम्मेणं /