Book Title: Jain Yog Adhunik Santras Evam Manovigyan Author(s): Mangala Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 6
________________ १४६ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन पितृप्रेम, मातृप्रेम, भगवत्भक्ति, वैषयिक आसक्ति, क्रोध, ईष्या, मात्सर्य, विकर्षण आदि सभी भाव एवं संवेग इसी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं तथा भूख, प्यास और मैथुनेच्छा आदि मूल प्रवृत्तियाँ जब बार बार उत्पन्न होती हुयी इच्छाओं के रूप में क्रमशः दृढ़ ग्रन्थि का आकार ग्रहण कर लेती है तो वासनायें कहलाती हैं। ये वासनायें अपने स्वभाव से व्यक्ति की सभी क्रियाओं को वासित-रंजित करती हैं। इनके द्वारा काम की अभिव्यक्ति एवं वृद्धि भी होती रहती है। वासनायें अपनी पूर्ति चाहती हैं तथा वासनाओं की पूर्ति के प्रयत्नों के प्रसंग में उत्पन्न होने वाली अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियाँ हैं, जो संवेग है, अपनी अभिव्यक्ति चाहती हैं। परन्तु बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता एवं नैतिक अहं के द्वारा उन्हें न दी जाने वाली सामाजिक मान्यता, उन्हें पूर्ण एवं अभिव्यक्त होने की आज्ञा नहीं देती। इस प्रकार इन दो तत्त्वों का संघर्ष तनाव उत्पन्न करता है। वे वासनायें या उन संवेगों के आवेग अपनी पूर्ति एवं अभिव्यक्ति के अभाव में अवरुद्ध होकर अचेतन मन का मूक भाग बन जाते हैं। वहाँ ये दमित वासनायें नष्ट नहीं होती, परन्तु अधिक सूक्ष्म एवं छद्मरूप में व्यक्त होने के लिए अवसर खोजती हैं । ये अहेतुक उद्वेग, चिन्ताकुलता, प्रत्यग्गमन, स्वप्न, दिवास्वप्न, सामान्य व्यवहार में होने वाली त्रुटियाँ, विस्मृतियाँ आदि अनेक व्यवहारों में व्यक्त होती हैं तथा वे अनेक शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक विकृतियों को जन्म देती हैं एवं अशान्ति की एक लम्बी परम्परा को बनाये रखती हैं। __ योग मानव के सांसारिक व्यवहारों का विश्लेषण कर उनमें निहित प्रेरक तत्त्व के रूप से कामतत्त्व की, जिसे वह राग कहता है, खोज करता है परन्तु योग की खोज मनोविज्ञान की खोज का भी अतिक्रमण करती है, जब वह व्यवहारों के मूल प्रेरक तत्त्व के रूप में एक अधिक सूक्ष्म तत्त्व अविद्या को स्वीकार करती है। यह अविद्या आत्मभिन्न सभी पर पदार्थों में स्व को खोजने की वृत्ति है। यह वह मिथ्यादृष्टि है जो जैनयोग की दृष्टि में नित्य, स्वतन्त्र चित् तत्त्व के रूप में स्वयं के अस्तित्व के बोध का अभाव है या कहें स्वयं के यथार्थ स्वरूप का विपरीत बोध है। योग की दृष्टि में यह दुराग्रह या विपरीत बोध पर पदार्थ को आत्मगत करने वाले काम को, राग को जन्म देता है। इस प्रकार जैन योग डॉ. फ्रायड से कुछ सीमा तक सहमत है और कुछ सीमा तक असहमत भी। योग मिथ्यादृष्टि या अविद्या के विपरीत तत्त्व विवेकख्याति की या मात्र दष्टा होने की स्व की शक्ति की भी खोज करता है जिसे जैनयोग आत्मशक्ति मानते हैं। यही शक्ति संयम को दमन से अलग करती है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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