Book Title: Jain Yog Adhunik Santras Evam Manovigyan
Author(s): Mangala
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान डॉ. मंगला योग आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया है, जिसका मूल भारत के सुदूर इतिहास में छिपा हुआ है । जहाँ तक जैनयोग का सम्बन्ध है, पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि उसके प्रारम्भ की नींव भगवान् महावीर से भी पूर्व ऋषभदेव के काल में निहित है । जैन आगमों में योग पद मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, ' ये वे क्रियाएँ हैं, जो एक प्रकार से बंधन का ही कारण हैं । स्पष्ट है कि यह अर्थ योग के प्रचलित अर्थ से एवं पातंजलयोग के अर्थ से अत्यन्त भिन्न है; क्योंकि पातंजलयोग के अनुसार मुक्ति की ओर ले जाने वाले मानसिक व्यापारों का निरोध एवं उस निरोध में सहायक होने वाले साधन योग हैं । पातंजलयोग के इस अर्थ के साथ साम्य रखनेवाले शब्दों को जैन आगमों में खोजा जा सकता है, जैसे कि अयोग, संवर, निर्जरा, तप आदि । आगे चलकर हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य जैसे आचार्यों ने इस अर्थ में अर्थात् योग साधना के अर्थ में योग शब्द को भी प्रचलित किया है । यहाँ इसी अर्थ में योग शब्द का प्रयोग किया जा रहा है । योग के सामान्य अर्थ से जैन विचारधारा पातंजलयोग से सहमत होती हुई भी अपनी तत्त्वमीमांसीय मान्यता के कारण उससे भिन्नता भी रखती है । जहाँ पातंजलयोग के अनुसार चित्त प्रकृति का ही एक उत्पादन है, अतः पुरुष आत्मा से भिन्न है और पुरुष से भिन्न होने के कारण ज्ञान, आनंद जैसी उसकी वृत्तियों का परिणमनों का निरोध पुरुष की अपनी स्वरूपावस्थिति के लिए उसी परिणमन का, जो कि कषायों से या कर्मों से उत्पन्न आत्मिक परिणमन है और जिसे हम वैभाषिक परिणमन भी कह सकते है, निरोध अनिवार्य है और चूँकि जैनयोग के अनुसार ज्ञान, आनन्द जैसे गुण आत्मा के निजी गुण है अतः आत्मा की अपनी स्वरूपावस्थिति के लिए उन गुणों का निरोध नहीं, परन्तु उनका चरम शुद्ध विकास आवश्यक है । जैनयोग के अनुसार योग-साधना की प्राथमिक शर्त सम्यग्दर्शन है, जिसके आधार पर ज्ञान एवं चरित्र को सम्यक्ता निर्धारित होती है । सम्यग्दर्शन अपने सूक्ष्मरूप में आत्मप्रतीति या आत्मस्वरूप की ओर उन्मुखता है एवं स्थूल रूप में या परिसंवाद-४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन अपने व्यावहारिक रूप में जीवादि पदार्थों का यथार्थ रूप से निश्चय करने की रुचि है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि आत्मस्वरूप की प्रतीति में न केवल आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, परन्तु ज्ञान दर्शनादि गुणों से युक्त आत्मा में विश्वास निहित है, और यहीं पर जैनयोग पातंजलयोग से अपनी भिन्नता स्थापित करता है और वह उसकी तुलना में योग के लक्ष्य के रूप में सद्-चित् आनन्द रूप आत्मस्वरूप को स्वीकार कर योग के लिए अधिक विधेयात्मक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अधिक सुसंगत आधार प्रस्तुत करता है। जहाँ तक योग की प्रक्रिया का सम्बन्ध है, पातंजलयोग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के रूप में योग की सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूपरेखा प्रस्तुत करता है। वह सामाजिक संदर्भ में उत्पन्न होनेवाले विकर्षणों को दूर करने के लिए यम और नियम की, स्थूल शरीर से उत्पन्न होने वाले विकर्षणों को दूर करने के लिए आसन एवं प्राणायाम की, ऐन्द्रिय विषयों से उत्पन्न होने वाले विकर्षणों को दूर करने के लिए प्रत्याहार की, विकारों को, संस्कारों को, भूतकाल की घटनाओं से बंधे रहने की, एवं भविष्य के स्वप्नों में लीन होने की वृत्ति जैसे अनेक मानसिक विकर्षणों को दूर करने के लिए धारणा, ध्यान तथा समाधि की अवधारणा का विवेचन करता है। इन सभी तत्त्वों से साम्य रखनेवाले तत्त्व हमें जैन आगमों एवं जैन प्राचीन ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं, जिन पर हम आगे संक्षिप्त रूप से विचार करेंगे। व्रत (यम)-जैन विचारधारा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को व्रत के रूप में मान्यता दी है। अहिंसा समस्त प्राणियों के विषय में आत्मवत् भाव या साम्यभाव है एवं तदनुकूल आचरण है । सत्य मन, वचन और कर्म की एकरूपता में एवं वचन की प्रामाणिकता में निहित है। अस्तेय न दिए हुए दूसरों को किसी भी वस्तु को ग्रहण न करना है। ब्रह्मचर्य अपने सामान्य अर्थ में आत्मा के शुद्ध स्वरूप की ओर गति करना है एवं अपने विशेष अर्थ में कामभोगों से विरत होना है । अपरिग्रह अपने अमर्त रूप में संग्रह का त्याग है । जैनयोग के अनुसार सभी व्रतों में अहिंसा का प्रमुख स्थान है, अन्य व्रत उसके लिए हैं या उसके ही विभिन्न रूप हैं । इन व्रतों का आंशिक पालन अणुव्रत है एवं पूर्णतः पालन महाव्रत है । यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि सर्वप्रथम गृहस्थों के लिए अणुव्रतों का उल्लेख करने वाले योगसूत्र से पहले वैदिक परम्परा में भिक्षु या संन्यासी के इन व्रतों का उल्लेख गृहस्थ के लिए इस रूप में नहीं हुआ है। यद्यपि पातंजल योगसूत्र में यम और महाव्रत में सीमानिरपेक्षता के आधारपर भेद-रेखा खींची गयी है। फिर भी उसमें महाव्रतों की ओर ले जाने वाले परिसंवाद-४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान १४३ अणुव्रतों का स्पष्ट रूप नहीं मिलता है, जैसा कि हम जैनयोग के अणुव्रतों के स्वरूप में, उसके अतिचारों में, तथा उसके गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत जैसे सहायक व्रतों में पाते हैं। इस प्रकार अणुव्रतों की देन जैनयोग की अपनी विशेषता है । __ पातंजलयोग शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान के रूप में नियम का उल्लेख करता है । इन सभी तत्त्वों का विस्तृत विवरण आगमों में है । यद्यपि जैनयोग सृष्टिकर्ता, कर्मफलनियन्ता, साधकों के विघ्नों के निवारणकर्ता ईश्वर की भक्ति को एवं उसके निमित्त किये गये कर्मफलत्याग को मान्यता नहीं देता है परन्तु वह अरिहन्त एवं सिद्धों के प्रति की जानेवाली श्रद्धा एवं भक्ति को इसलिए मान्यता देता है कि उनके स्मरण से साधक अपनी सुषुप्त शक्ति को स्वयं जागृत कर सके। आसन-दशाश्रुतस्कन्ध में श्रमण के लिए एकमासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी आदि जिन बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है, उनमें आसनों का भी उल्लेख प्राप्त होता है जैसे कि प्रथम सप्तराविन्दिवा नामक आठवीं प्रतिमा में सात रात-दिन तक उपवासपूर्वक नगर के बाहर जाकर उत्तानासन और निषिद्यासन में स्थित होकर ध्यान करने का विधान है तो नवम प्रतिमा को दण्डासन, लगुड़ासन, अथवा उत्कटुकासन में स्थित होकर संपादित करने का विधान है।" उत्तराध्ययन सूत्र में इन्हें स्थान पद से सम्बोधित किया गया । आसन के संदर्भ में कायोत्सर्ग मुद्रा को भी विशेष स्थान मिला है, जिसे पद्मासन या सुखासन में दोनों हाथों को या तो घुटनों पर टिकाकर या बायीं हथेली रखकर संपादित किया जाता है । आसनों से शरीर को साधा जाता है तो प्राणायाम से प्राण को। मैडम ब्लावटेस्की के अनुसार प्राण एक शक्ति है, जो विद्युदाकर्षणरूप परमाणुओं से मनुष्य के प्राणमय शरीर का निर्माण करती है इस शरीर के विद्युत्कणों में प्रकाश शक्ति और उस शक्ति का दूसरा रूप उष्णताशक्ति अन्तर्निहित है। इस संदर्भ में विचार करें तो जैन तैजस शरीर की अवधारणा प्राणमय शरीर से अत्यधिक साम्य रखती है, ऐसा प्रतीत होता है । ग्रहण किये हुये अन्न का पाचन, शारीरिक कान्ति, दीप्ति तथा स्थूल शरीर से बाहर निकलकर दूसरे पदार्थों को भस्म या अनुगृहीत करना आदि तैजसशरीर के कार्य हैं। जैन विचारणा की दृष्टि से प्राण एक दर्जा है, जो कि मन, वचन, श्वास, इन्द्रिय एवं शरीर आदि की गतिविधियों में सहयोगी एवं सक्रिय होने के कारण तदनुकूल प्रकारों में विभक्त है, जैसे कि मन-बल-प्राण, वचन-बल-प्राण आदि । यद्यपि आवश्यकनियुक्ति में श्वास के दीर्घ निरोध का या कहें, दीर्घ कुम्भक का आकस्मिक मरण की संभावना की दृष्टि से निषेध किया गया है परन्तु सूक्ष्म आश्वास परिसंवाद-४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन की प्रक्रिया को मान्यता दी गयी है। कायोत्सर्ग की विधि को एवं आवश्यकनियुक्ति के इस कथन को देखकर कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान के समय श्वास को मंद करना चाहिये, कहा जा सकता है कि जैनयोग ने भी मन की शान्ति के लिए प्राणायाम को कुछ सीमा तक स्वीकार किया था। पातंजलयोग के अनुसार प्रत्याहार, चित्त की अनुगामी बनी हुई इन्द्रियों का अपने आप विषयों से विरत होना है। प्रत्याहार के इस स्वरूप को जैनयोगीय प्रतिसंलीनता के प्रकारों में अर्थात् इन्द्रिय प्रतिसंलीनता एवं कषाय प्रतिसंलीनता में खोजा जा सकता है। श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय प्रचार को रोकना और प्राप्त शब्दादि विषयों में राग-द्वेष रहित होना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है, तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभ के उदय को असफल करना कषाय प्रतिसलीनता है। जैनयोग के अनुसार द्वितीय के अभाव में प्रथम प्रतिसंलीनता का कोई मूल्य नहीं है, दूसरे शब्दों में राग-द्वेष आदि विकारों की शान्ति के प्रकाश में ही इन्द्रियों की विषयविमुखता को साधना के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट कहा गया है कि आँखों के सामने आते हुये रूप और कानों में पड़ते हुये शब्द आदि विषयों का परिहार शक्य नहीं है, ऐसे प्रसंगों में साधक राग-द्वेष से दूर रहे।' अनावश्यक रूप से होने वाले शक्ति के व्यय को टालने के लिए जहाँ इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है, वहाँ भी इन्द्रिय-निग्रह की निष्पत्ति रागद्वेष की शान्ति में होनी चाहिये और ऐसा इन्द्रिय-निग्रह साधना के लिए उचित है, अन्यथा वह एक छल, दमन या उपशमन है और ऐसे उपशमन को जैनयोग मान्यता नहीं देता है, यह उसके गुणस्थान की प्रक्रिया से अत्यन्त स्पष्ट होता है। पातञ्जलयोगीय धारणा, ध्यान एवं समाधि का विस्तृत क्षेत्र जैनयोग के ध्यान में समाविष्ट हो जाता है। ध्यान की प्रक्रिया द्वारा साधी गयी मन की एकाग्रता में चैतन्य शक्ति को जागृत रखने का प्रयत्न किया जाता है। जैनयोग के स्वरूप को समझने के बाद उसकी उपयोगिता को समझने के लिए मानव मन के संत्रास को भी समझना होगा। वैज्ञानिक, तकनीकी और बौद्धिक जानकारी के चरम विकास के कारण एक ओर मानव के ज्ञान कोष में और उसकी सुख-सुविधाओं में अभूतपूर्व बृद्धि हुयी है तो दूसरी ओर मानव की बढ़ती हयी महत्वाकांक्षाओं, प्रतिस्पर्धाओं एवं तृष्णाओं के कारण उसकी अशान्त, विशिष्ट एवं तनावपूर्ण अवस्था में भी अभूतपूर्व बृद्धि हुयी है । भौतिक सुविधा और आर्थिक समृद्धि की अपरिमित बृद्धि मानव की मानसिक असंतुष्टि परिसंवाद-४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान १४५ की खाई को पाट नहीं सकी है। प्रतिदित बढ़ती हुयीं अनिद्रा की बीमारियाँ, मनोविकृतियाँ, नैतिक मूल्यों का विरोध करने की वृत्तियाँ एवं ध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ आदि ऐसे तथ्य हैं, जो उपर्युक्त कथन की पुष्टि करते हैं। इस बढ़ते हुये मानसिक संत्रास का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि आज का मनुष्य वर्तमान सभ्यता की जटिलता के कारण न तो अपनी इच्छाओं को सहज रूप से अभिव्यक्त कर उनकी पूर्ति कर सकता है और न वह अपनी बढ़ती हुयी आकांक्षाओं से मुक्ति ही प्राप्त कर सकता है। भीतर वासनाओं का तूफान और ऊपर तथाकथित सभ्यता का आवरण, इन दोनों के संघर्ष में मानव स्वयं ही खण्डित हो रहा है। आज का मानव समाज जिस सरल, साफ एवं स्वाभाविक जीवनपद्धति को खो चुका है, उसे वह मूल प्रवृत्तियों और वासनाओं के शोधन, उदात्तीकरण एवं निराकरण की विधि के द्वारा स्थानापन्न नहीं कर सका है। एक गहरी रिक्तता एवं संघर्षों से भरी द्वन्द्वात्मकता मानव की दुर्भाग्यपूर्ण गाथा है। क्या भारतीय योग की पद्धति विशेषतः जैनयोग पद्धति मानव को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से मुक्ति दिला सकती है और यदि वह दिला सकती है तो उसकी पद्धति क्या है ? एवं क्या वह पद्धति मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में उचित है ? योग की साधना पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य मानवीय चेतना को विक्षेपों, विक्षोभों एवं तनावों से मुक्तकर निराकुल अवस्था की ओर ले जाना है। संक्षेप में निराकुल स्थिति की प्राप्ति योग की व्यावहारिक उपलब्धि है। मानव मन की विक्षुब्ध स्थिति के और उसकी मानसिक विकृति के लक्षणों में प्रगट होने वाली मूल बीमारी उसकी बढ़ती हुयी असीम इच्छा या आकांक्षा है एवं उसकी पूर्ति के प्रयत्नों में उत्पन्न होने वाली दोहरी मानसिकता है। योग पद्धति विवेक पर आधारित संयम और संतोष की तकनीक के द्वारा आकांक्षाओं को निर्मूल कर चित्त में निराकुलता की स्थिति उत्पन्न करती है। यहाँ यह प्रश्न खड़ा होता कि क्या यह संयम दमन नहीं है और यदि दमन है तो योग मानसिक तनाव के लिए स्थायी समाधान नहीं प्रस्तुत कर सकता, क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार दमित तत्त्व अधिक विकृत हो जाते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार विशेषतः मनोवैज्ञानिक डॉ. फ्रायड के अनुसार चित्त के परिणामों, संवेगों एवं भावों के मूल में निहित प्रधान शक्ति कामशक्ति (लिबिडो) है, जो अपने विशेष रूप में अर्थात् प्रेरणा के रूप में एक प्रकार की सहचर की कामना है और अपने सामान्य रूप में पदार्थ या व्यक्ति को आत्मगत करने की लालसा है। परिसंवाद-४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन पितृप्रेम, मातृप्रेम, भगवत्भक्ति, वैषयिक आसक्ति, क्रोध, ईष्या, मात्सर्य, विकर्षण आदि सभी भाव एवं संवेग इसी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं तथा भूख, प्यास और मैथुनेच्छा आदि मूल प्रवृत्तियाँ जब बार बार उत्पन्न होती हुयी इच्छाओं के रूप में क्रमशः दृढ़ ग्रन्थि का आकार ग्रहण कर लेती है तो वासनायें कहलाती हैं। ये वासनायें अपने स्वभाव से व्यक्ति की सभी क्रियाओं को वासित-रंजित करती हैं। इनके द्वारा काम की अभिव्यक्ति एवं वृद्धि भी होती रहती है। वासनायें अपनी पूर्ति चाहती हैं तथा वासनाओं की पूर्ति के प्रयत्नों के प्रसंग में उत्पन्न होने वाली अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियाँ हैं, जो संवेग है, अपनी अभिव्यक्ति चाहती हैं। परन्तु बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता एवं नैतिक अहं के द्वारा उन्हें न दी जाने वाली सामाजिक मान्यता, उन्हें पूर्ण एवं अभिव्यक्त होने की आज्ञा नहीं देती। इस प्रकार इन दो तत्त्वों का संघर्ष तनाव उत्पन्न करता है। वे वासनायें या उन संवेगों के आवेग अपनी पूर्ति एवं अभिव्यक्ति के अभाव में अवरुद्ध होकर अचेतन मन का मूक भाग बन जाते हैं। वहाँ ये दमित वासनायें नष्ट नहीं होती, परन्तु अधिक सूक्ष्म एवं छद्मरूप में व्यक्त होने के लिए अवसर खोजती हैं । ये अहेतुक उद्वेग, चिन्ताकुलता, प्रत्यग्गमन, स्वप्न, दिवास्वप्न, सामान्य व्यवहार में होने वाली त्रुटियाँ, विस्मृतियाँ आदि अनेक व्यवहारों में व्यक्त होती हैं तथा वे अनेक शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक विकृतियों को जन्म देती हैं एवं अशान्ति की एक लम्बी परम्परा को बनाये रखती हैं। __ योग मानव के सांसारिक व्यवहारों का विश्लेषण कर उनमें निहित प्रेरक तत्त्व के रूप से कामतत्त्व की, जिसे वह राग कहता है, खोज करता है परन्तु योग की खोज मनोविज्ञान की खोज का भी अतिक्रमण करती है, जब वह व्यवहारों के मूल प्रेरक तत्त्व के रूप में एक अधिक सूक्ष्म तत्त्व अविद्या को स्वीकार करती है। यह अविद्या आत्मभिन्न सभी पर पदार्थों में स्व को खोजने की वृत्ति है। यह वह मिथ्यादृष्टि है जो जैनयोग की दृष्टि में नित्य, स्वतन्त्र चित् तत्त्व के रूप में स्वयं के अस्तित्व के बोध का अभाव है या कहें स्वयं के यथार्थ स्वरूप का विपरीत बोध है। योग की दृष्टि में यह दुराग्रह या विपरीत बोध पर पदार्थ को आत्मगत करने वाले काम को, राग को जन्म देता है। इस प्रकार जैन योग डॉ. फ्रायड से कुछ सीमा तक सहमत है और कुछ सीमा तक असहमत भी। योग मिथ्यादृष्टि या अविद्या के विपरीत तत्त्व विवेकख्याति की या मात्र दष्टा होने की स्व की शक्ति की भी खोज करता है जिसे जैनयोग आत्मशक्ति मानते हैं। यही शक्ति संयम को दमन से अलग करती है। परिसंवाद-४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान १४७ मनोविज्ञान के अनुसार मनोविश्लेषण वह रेचन प्रक्रिया है, जो चित्त के अज्ञान-अचेतन स्तर की ग्रन्थियों, संवेगों और भावों को ज्ञान-चेतन स्तर पर लाकर उनसे उत्पन्न तनावों को दूर करती है। प्रारम्भ में रोगी को सम्मोहित कर, उसे निर्देश देकर उसके दमित अज्ञात संवेगों को ज्ञात कर इस प्रक्रिया को क्रियान्वित किया जाता था। परन्तु फ्रायड ने मनोविश्लेषण के रूप में स्वतन्त्र साहचर्य पद्धति का अन्वेषण किया, जिसमें रोगी को सुखासन में लिटाकर स्वतन्त्रता दी जाती है कि वह (रोगी) उसके अपने मन में जो कुछ भी आये, उसे कहता जाये। उसे न केवल अपनी कहानी को प्रत्युत उसके मन में आने वाले सभी चित्रों अथवा प्रतिरूपों को एवं स्मृति चिह्नों को उद्घाटित करने के लिए प्रेरणा दी जाती है। इससे अवदमित कांक्षायें प्रगट होती हैं और भावों का रेचन हो जाता है। योग के अनुसार भी इस रेचन की प्रक्रिया को दो विधाओं से क्रियान्वित किया जा सकता है। जहाँ तक दमित वासनाओं का सम्बन्ध है, योग के अनुसार शवासन जैसे आसनों को सम्पादित कर अचेतन के संस्कारों को पूरी तरह से उभरने का अवसर दिया जा सकता है और उसके बाद द्रष्टा की तटस्थ चित् शक्ति के तले उन्हें ज्ञान बनाकर उनका रेचन किया जा सकता है। इसका स्पष्ट रूप पातंजल योग की प्रत्याहार की तथा संयम की प्रक्रिया में एवं बौद्धयोग के कायानुपश्यना और चित्तानुपश्यना की प्रक्रिया में खोजा जा सकता है, उसी प्रकार जैनयोग में ध्यान के माध्यम से की जाने वाली उदीरणा की प्रक्रिया में हमें रेचन क्रिया के सूक्ष्म बीज मिलते हैं। .. जहाँ तक उभरते हुए संवेगों के रेचन का प्रश्न है, योग के अनुसार उनका बिना दमन किए, रेचन किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में उभरते हुए संवेगों के क्षणों में ही बिना उनको रोके, मानसिक तल पर उन्हें प्रस्फुटित होने का अवसर देकर द्रष्टा की तटस्थ शक्ति या स्वपर में भेद करने वाली विवेक-बुद्धि के तले उन्हें प्रकाशित कर उनका निराकरण किया जा सकता है । इस प्रक्रिया में जो चित् शक्ति संवेगों के माध्यम से अधिक भावात्मक बनकर बाह्योन्मुखी होकर प्रवाहित होना चाहती थी उसे विवेक के माध्यम से ज्ञानात्मक बनाकर अन्तर्मुखी किया जाता है। मनोविज्ञान के अनुसार उभरते हुए संवेगों को जब नैतिक अहं की शक्ति या हेय उपादेय की बुद्धि नियमित या अवरुद्ध करती है तो दमन घटित होता है जब किं योग के अनुसार संवेगों के उभरते हुए क्षणों में नैतिक अहं को भी अतिक्रान्त करने परिसंवाद-४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन वाले द्रष्टा की तटस्थ आध्यात्मिक विवेक शक्ति जागृत रहे तो संयम या संवेगों का निराकरण घटित होता है। निराकरण की प्रक्रिया में योग के अन्य अंग भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं । योग के अनुसार चूंकि संवेगों का भौतिक एवं मानसिक दोनों ही आयाम है, अतः उनके निराकरण में आसन एवं प्राणायाम की प्रक्रिया भी कुछ सीमा तक सहायक हो सकती है। आसन एवं प्राणायाम में साधी गयी शरीर की एवं श्वासप्रश्वास की सन्तुलित स्थिति संवेगों के भौतिक पक्ष का निराकरण करने में सहायता कर सकती है। योग जेम्सलैंग के इस सिद्धान्त से कुछ सीमा तक सहमत हो सकता है कि उत्तेजक तत्त्व के परिज्ञान के पश्चात् ही शरीर में कुछ परिवर्तन होते हैं और उन परिवर्तनों का भाव ही संवेग है। जैम्सलैंग के सिद्धान्त के अनुसार सामान्य ज्ञान का अनुकरण कर हम कहते हैं कि हमारा धन खो गया है, हमें दुःख होता है और हम रो पड़ते हैं। हमें भालू से भेंट होती है, हम डर जाते हैं और हम भागते हैं । प्रतिद्वन्द्वि हमारा अपमान करता है, हमें क्रोध होता है और उसे पीटते हैं । इस प्रकार का अनुक्रम त्रुटिपूर्ण है-अधिक बौद्धिक कथन यह है कि हम रोते हैं इसी से हमें दुःख होता है, हम पीटते हैं अतः क्रुद्ध हो जाते हैं, हम काँपते हैं और डर जाते हैं । १२ परन्तु योग जैम्सलैंग के समान संवेगों को मात्र शारीरिक परिवर्तनों के रूप में ही व्याख्यायित नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि में संवेगों के पूर्ण निराकरण के लिए चित् शक्ति को, जो अपने अन्तिम स्वरूप में राग-विराग से मुक्त है, विकसित एवं जागृत करने की आवश्यकता है। बौद्धयोग में समत्व और विपश्यना दोनों ही पद्धतियों में स्वीकार की गयी सजगता (स्मृति) की आवश्यकता तथा जैन योग में 'जाणई पासई' की साधना उपर्युक्त तथ्य पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह नहीं है कि योग उचित वासनाओं की पूर्ति को स्थान नहीं देता। वह जैविक आवश्यकताओं को उचित पूर्ति को स्थान देता है और यह तथ्य जैनयोग के अणुव्रतों से स्पष्ट होता है। वस्तुतः भारतीय योग के पीछे जो मूलभूत आध्यात्मिक दृष्टि है, वह जैविक मूल्यों की अस्वीकृति नहीं है, परन्तु जैविक मूल्यों के ऊपर आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि है, जैसे कि स्वयं अध्यात्म अधि + आत्म शब्द से सूचित होता है। वस्तुतः योग की साधना विवेक पर आधारित अनाशक्ति की साधना है, और अनाशक्ति का भाव एवं उसी प्रकार विवेक पर आधारित संयम, दमन नहीं हो सकता। परिसंवाद ४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान पाद टिप्पणियाँ 1 तिविहे जोगे पण्णत्ते तंजहा मणजोगे, वइ जोगे कायजोगे ।-ठाणांगसू स्था० 3, 301, सू० 124 / 2. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः / -पातंजलयोगसूत्र 1 / 2 तथा, द्रष्टुस्वरूपावस्थितिहेतुश्चित्तनिवृत्ति. निरोधो योगः ।-योगवार्तिक 1 / 2 / It my also be pointed out that in the Brahmanical tradition, these vows for mendicantle were nowhere prescribed for a householder till perhaps yogasastra first of all thought of having small vuows (anuvratas) for the househalder.-Dayanand Bhargava, Jaina Ethics P. 104. 4. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।-योगसूत्र 2 / 31 / 5. ......"एवं दोच्चा सत्तराइंदियायान्वि / नवरं दंडायनियस्स वा लंगडसाइस्स वा कुडुयस्स वा वाणं णइत्तग्"....." / -दशाश्रुतस्कन्ध भिक्षु प्रतिमावर्णन 7:9 / 6. वाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहाविहा / उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ।।-उत्तराध्ययन 30 / 27 / 7. कल्याण, सावनांक पृ. 406 / 8. उस्सासं न निरुंभइ, आभिग्गाहिओ वि किमु उ चिट्ठाउ सज्जमरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु झयणाए ।-आ० नि० 1505. / ताव सुहुमाणुपाणु धम्म सुक्कं च झाइज्जा ।-आ० नि० 1495 / 10. "पडिसंलीणया चउन्विहा पण्णत्ता तंजहा-इंदियपडिसंलीणया कसायपडिसंलीणया / -औपपातिकसूत्र तपोधिकार सूत्र 30 / 11. ण सक्का ण सोउं सदा सोयविसयमागया / रागदोसा उ जे तत्थ तं भिक्खू परिवज्जए / / ण सक्का रूवमट्टुं चक्खू विसयमागयं / रागदोसा उ जे तत्थ तं भिक्खू परिवज्जए ।-आचारचूलिका विमुक्ति अध्ययन / 12. अर्जुन चौबे, सामान्य मनोविज्ञान, प्र० खं० पृ० 401-14 / दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश परिसंवाद-४