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________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान १४५ की खाई को पाट नहीं सकी है। प्रतिदित बढ़ती हुयीं अनिद्रा की बीमारियाँ, मनोविकृतियाँ, नैतिक मूल्यों का विरोध करने की वृत्तियाँ एवं ध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ आदि ऐसे तथ्य हैं, जो उपर्युक्त कथन की पुष्टि करते हैं। इस बढ़ते हुये मानसिक संत्रास का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि आज का मनुष्य वर्तमान सभ्यता की जटिलता के कारण न तो अपनी इच्छाओं को सहज रूप से अभिव्यक्त कर उनकी पूर्ति कर सकता है और न वह अपनी बढ़ती हुयी आकांक्षाओं से मुक्ति ही प्राप्त कर सकता है। भीतर वासनाओं का तूफान और ऊपर तथाकथित सभ्यता का आवरण, इन दोनों के संघर्ष में मानव स्वयं ही खण्डित हो रहा है। आज का मानव समाज जिस सरल, साफ एवं स्वाभाविक जीवनपद्धति को खो चुका है, उसे वह मूल प्रवृत्तियों और वासनाओं के शोधन, उदात्तीकरण एवं निराकरण की विधि के द्वारा स्थानापन्न नहीं कर सका है। एक गहरी रिक्तता एवं संघर्षों से भरी द्वन्द्वात्मकता मानव की दुर्भाग्यपूर्ण गाथा है। क्या भारतीय योग की पद्धति विशेषतः जैनयोग पद्धति मानव को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से मुक्ति दिला सकती है और यदि वह दिला सकती है तो उसकी पद्धति क्या है ? एवं क्या वह पद्धति मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में उचित है ? योग की साधना पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य मानवीय चेतना को विक्षेपों, विक्षोभों एवं तनावों से मुक्तकर निराकुल अवस्था की ओर ले जाना है। संक्षेप में निराकुल स्थिति की प्राप्ति योग की व्यावहारिक उपलब्धि है। मानव मन की विक्षुब्ध स्थिति के और उसकी मानसिक विकृति के लक्षणों में प्रगट होने वाली मूल बीमारी उसकी बढ़ती हुयी असीम इच्छा या आकांक्षा है एवं उसकी पूर्ति के प्रयत्नों में उत्पन्न होने वाली दोहरी मानसिकता है। योग पद्धति विवेक पर आधारित संयम और संतोष की तकनीक के द्वारा आकांक्षाओं को निर्मूल कर चित्त में निराकुलता की स्थिति उत्पन्न करती है। यहाँ यह प्रश्न खड़ा होता कि क्या यह संयम दमन नहीं है और यदि दमन है तो योग मानसिक तनाव के लिए स्थायी समाधान नहीं प्रस्तुत कर सकता, क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार दमित तत्त्व अधिक विकृत हो जाते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार विशेषतः मनोवैज्ञानिक डॉ. फ्रायड के अनुसार चित्त के परिणामों, संवेगों एवं भावों के मूल में निहित प्रधान शक्ति कामशक्ति (लिबिडो) है, जो अपने विशेष रूप में अर्थात् प्रेरणा के रूप में एक प्रकार की सहचर की कामना है और अपने सामान्य रूप में पदार्थ या व्यक्ति को आत्मगत करने की लालसा है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212334
Book TitleJain Yog Adhunik Santras Evam Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangala
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size733 KB
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