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________________ जैनयोग, आधुनिक संत्रास एवं मनोविज्ञान १४७ मनोविज्ञान के अनुसार मनोविश्लेषण वह रेचन प्रक्रिया है, जो चित्त के अज्ञान-अचेतन स्तर की ग्रन्थियों, संवेगों और भावों को ज्ञान-चेतन स्तर पर लाकर उनसे उत्पन्न तनावों को दूर करती है। प्रारम्भ में रोगी को सम्मोहित कर, उसे निर्देश देकर उसके दमित अज्ञात संवेगों को ज्ञात कर इस प्रक्रिया को क्रियान्वित किया जाता था। परन्तु फ्रायड ने मनोविश्लेषण के रूप में स्वतन्त्र साहचर्य पद्धति का अन्वेषण किया, जिसमें रोगी को सुखासन में लिटाकर स्वतन्त्रता दी जाती है कि वह (रोगी) उसके अपने मन में जो कुछ भी आये, उसे कहता जाये। उसे न केवल अपनी कहानी को प्रत्युत उसके मन में आने वाले सभी चित्रों अथवा प्रतिरूपों को एवं स्मृति चिह्नों को उद्घाटित करने के लिए प्रेरणा दी जाती है। इससे अवदमित कांक्षायें प्रगट होती हैं और भावों का रेचन हो जाता है। योग के अनुसार भी इस रेचन की प्रक्रिया को दो विधाओं से क्रियान्वित किया जा सकता है। जहाँ तक दमित वासनाओं का सम्बन्ध है, योग के अनुसार शवासन जैसे आसनों को सम्पादित कर अचेतन के संस्कारों को पूरी तरह से उभरने का अवसर दिया जा सकता है और उसके बाद द्रष्टा की तटस्थ चित् शक्ति के तले उन्हें ज्ञान बनाकर उनका रेचन किया जा सकता है। इसका स्पष्ट रूप पातंजल योग की प्रत्याहार की तथा संयम की प्रक्रिया में एवं बौद्धयोग के कायानुपश्यना और चित्तानुपश्यना की प्रक्रिया में खोजा जा सकता है, उसी प्रकार जैनयोग में ध्यान के माध्यम से की जाने वाली उदीरणा की प्रक्रिया में हमें रेचन क्रिया के सूक्ष्म बीज मिलते हैं। .. जहाँ तक उभरते हुए संवेगों के रेचन का प्रश्न है, योग के अनुसार उनका बिना दमन किए, रेचन किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में उभरते हुए संवेगों के क्षणों में ही बिना उनको रोके, मानसिक तल पर उन्हें प्रस्फुटित होने का अवसर देकर द्रष्टा की तटस्थ शक्ति या स्वपर में भेद करने वाली विवेक-बुद्धि के तले उन्हें प्रकाशित कर उनका निराकरण किया जा सकता है । इस प्रक्रिया में जो चित् शक्ति संवेगों के माध्यम से अधिक भावात्मक बनकर बाह्योन्मुखी होकर प्रवाहित होना चाहती थी उसे विवेक के माध्यम से ज्ञानात्मक बनाकर अन्तर्मुखी किया जाता है। मनोविज्ञान के अनुसार उभरते हुए संवेगों को जब नैतिक अहं की शक्ति या हेय उपादेय की बुद्धि नियमित या अवरुद्ध करती है तो दमन घटित होता है जब किं योग के अनुसार संवेगों के उभरते हुए क्षणों में नैतिक अहं को भी अतिक्रान्त करने परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212334
Book TitleJain Yog Adhunik Santras Evam Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangala
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size733 KB
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